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Saturday 12 October 2019

नदी किनारे

डूब कर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

एक विरोधाभास, दो मनोभाव,
एक निरंतर बहती नदी, दो प्रभाव,
इच्छाओं से, जिजीविषा तक!
दो विपरीत कामनाएं, एक ही फैलाव,
सिमट आते हैं सारे, नदी किनारे!

जीवित है, धूल में इक आशा,
कभी तो, रीत जाएगी वो जरा सा,
नदी, खुद आएगी उस तक!
फूल सा, खिल जाएगी वो भीग कर!
धूप सहती है धूल, नदी किनारे!

सुदूर पड़ी, वो धूल हैं आकुल,
सदियों से, मन उनके हैं व्याकुल,
नदी, कब आएगी उस तक?
कब फूल, बन पाएंगी वो खिल कर?
पछताती वो धूल, नदी किनारे!

आश-निराश के, ये दो कण,
तृप्ति-अतृप्ति के, वो मौन क्षण,
पसरा, नदी का वो आँचल,
खामोश बहती, कल-कल सी जल,
चुप-चुप हैं सारे, नदी किनारे!

डूबकर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 23 October 2018

मरुवृक्ष

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

दहकते रहे कण-कण,
पाया ना, छाँव कहीं इक क्षण,
धूल ही धूल प्रतिक्षण,
चक्रवात में, मरुवृक्ष सा रहा....

अचल सदा, अटल सदा....

रह-रह बहते बवंडर,
वक्त बेवक्त, कुछ ढ़हता अंदर,
ढ़हते रेत सा समुन्दर,
सूनी रात में, मरुवृक्ष सा जगा....

अचल सदा, अटल सदा.....

वक्त के बज्र-आघात,
धूल धुसरित, होते ये जज़्बात,
पिघलते मोम से वात,
रेगिस्तान में, मरुवृक्ष सा पला....

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

Wednesday 10 October 2018

अब कहाँ वो कहकशाँ

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....

न जाने, गुजरा है अब कहाँ वो कारवां,
धूल है हर तरफ,
फ़िज़ाओ में पिघला सा है धुआँ.....

गुजर चुके है जो, वक्त की तेज धार में,
वो रुके है याद में,
वो शाम-ओ-शहर अब हैं कहाँ.....

कभी जो कहते थे, दुनिया बसाऊंगा मै,
रातें सजाऊंगा मैं,
वो ही सूनी कर गए हैं बस्तियां.....

भिगोती थी कभी, कहकहों की बारिशें,
चुप है वो फुहारें,
है वीरान सा अब वो कहकशाँ......

अब ढ़ूंढता हूँ, फिर वही शाम-ओ-शहर,
वो रास्ते दर-बदर,
मिट चुके है जो कदमों के निशां.....

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....

Thursday 15 March 2018

इसी शहर से

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...

ये तमाम रास्ते, कहीं दूर शहर से जाते हैं...
पर मेरे वास्ते, ये बंद नजर आते है!
किसी मोहपाश में हम यहाँ बंधे जाते हैं,
यूं शहर की धूल में बिखर जाते हैं?

हम न शीशा कोई ,जो पल में टूट जाते हैं...
फिसलकर हाथ से जो छूट जाते हैं!
हैं वही सोना, जो तपकर निखर जाते हैं,
जलकर आग में भी सँवर जाते हैं!

शहर की शुष्क आवोहवा बदल जाते है...
यूं खुश्बू की तरह यहाँ बिखर जाते हैं!
गर्मियों में फुहार बनकर बरस जाते है,
हम शहर के रहगुजर बन जाते हैं!

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...
भले ही हमसफर न कोई हम पाते हैं!
यूं बार-बार इस दिल को हम समझाते हैं,
फिर न जाने हम खुद बहक जाते हैं?

ठहरकर इसी शहर से हम गुजर जाते हैं...

Wednesday 8 June 2016

सूखते रिश्ते

बदलते मौसम की बयार में सूख रहे हैं ये रिश्ते भी...,

कुम्हलाए हैं अब रिश्तों के नाजुक फूल,
जज्बातों की गर्म हवाओं में जलकर,
बदलते मौसम की अनचाही आँधी मे झूलकर,
एहसासों के जमीं पर बिखरे हैं अब धूल ही धूल।

फफूँद उग आए हैं रिश्तों की क्यारी में,
सुखे है यहाँ सभी भावनाओं के फूल,
बिखर चुके पंख कोमल सी कल्पनाओं के,
स्वतः पूर्णविराम लगे हैं जीवन की आशाओं पर।

कशिश बस एक बाकी है उन रिश्तों की,
कभी खुश्बु सी आती है उन फूलों की,
खिलकर बिखरे थे जो मन की इस क्यारी में,
अब कड़वाहट बाँकी है उन रिश्तों की फुलवारी में।

दरारें हैं अब कैसी रिश्तों की इस गाँठ में,
क्युँ अहम इंसानों के भारी हैं रिश्तों पर,
तृष्णा, लालसा, अहम, अभिलाषा हावी संबंधों पर,
कुठाराघात करते रहे वो दिल की लचीली दीवारों पर।

बदलते एहसासों के साथ में टूट रहे हैं ये रिश्ते भी...,

Sunday 3 April 2016

हाँ, जिन्दगी लम्हा-लम्हा

हाँ, बस यूँ गुजरती गई ये जिन्दगी,
कभी लम्हा-लम्हा हर कतरा तृष्णगी,
कभी साँसों के हर तार में है रवानगी,
बस बूँद-बूँद यूँ पीता रहा मैं ये जिन्दगी।

हाँ, कभी ये डूबी छलकती जाम में,
विहँसते चेहरो के संग हसीन शाम में,
रेशमी जुल्फों के तले नर्म घने छाँव में,
अपने प्रियजन के संग प्रीत की गाँव में।

हाँ, रुलाती रही उस-पल कभी वो,
याद आए बिछड़े थे हमसे कभी जो,
सिखाया था जिसने जीना जिन्दगी को,
कैसे भुला दें हम दिल से किसी को?

हाँ, पिघलते रहे बर्फ की सिल्लियों से,
उड़ते रहे धूल जैसे हवाओं के झौंकों से,
तपते रहे खुली धूप में गर्म शिलाओं से,
गुजरती रही है ये जिन्दगी हर दौर से।

हाँ, बदले हैं कई रंग हरपल जिन्दगी नें,
कभी सूखी ये अमलतास सी पतझड़ों में,
खिल उठे बार-बार गुलमोहर की फूलो में,
उभरी है जिन्दगी समय के कालचक्र से।

400 वीं कविता....सधन्यवाद "जीवन कलश" की ओर से...