Showing posts with label नीरवता. Show all posts
Showing posts with label नीरवता. Show all posts

Wednesday 7 February 2024

और आज

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

भुलाए न भूले, वे छलावे, वे झूले,
झूठे, बुलावे, वो कल के,
सांझ का आंगना,
हँसते, तारों की टोली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

रंगीन वो क्षितिज, कैसी गई छली!
उसी दिन की तरह, फिर,
फैले हैं रंग सारे,
पर, फीकी सी है होली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

सोए वे ही लम्हे, फिर उठे हैं जाग,
फिर, लौटा वो ही मौसम,
जागे वे शबनम,
बरसी बूंदें फिर नसीली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

फिर आज, भीग जाएंगी, वो राहें,
खुल ही जाएंगी, दो बाहें,
सजाएंगी सपने,
वे दो पलकें अधखुली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

Sunday 4 February 2024

उस रोज

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

उस रोज!
ठहरा था, सागर पल भर को,
विवश, कुछ कहने को,
उस, बादल से,
लहराते, उस आंचल से!

उस रोज!
किधर से, बह आई इक घटा!
बदली थी, कैसी छटा!
छलकी थी बूंदे,
सागर के, प्यासे तट पे!

उस रोज,
चीर गया था, कोई सन्नाटों को,
छेड़ गया, नीरवता को,
अवाक था, मैं, 
प्रश्न कई थे, उस पल में!

उस रोज,
किससे कहता मैं, सुनता कौन!
खड़ा यूं ही, रहा मौन,
यूं गिनता कौन!
वलय कई थे धड़कन में!

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

Friday 4 March 2022

जीवटता

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
शायद, लम्बा है जरा, पतझड़ों का ये मौसम!
रोके रखी हैं, सांसें थामकर अन्दर,
ये हवाएं, बस जरा जाएं गुजर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
ग़म के समुन्दर, बहे जा रहे, अन्दर ही अन्दर!
छाले, जो पत्तियां, दें गईं बदन पर,
उठती हैं, कभी, टीस बन कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
चुप ही चुप, आँकती हैं, मौसमों का मिजाज!
सोंचती हैं, मूंद कर अपनी पलकें,
गुजर जाए, वक्त के ये भंवर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
उनकी ये जीवटता, मिटने भी कहां देगी उन्हें!
जगाएंगे, पलकों तले पलते सपने,
नीरवता भरी, उन राहों पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
संघर्ष एक लम्बा, इस जिन्दगी का है अधूरा!
लौट ही आएंगे, आस के वो पंछी, 
चहक उठेंगे, इसी डाल पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 14 October 2020

गर हो तो रुको


गर हो तो, रुको....

कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 14 February 2020

कोशिशें

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

असंख्य तारे, टंके आसमां पर,
कर कोशिशें, लड़े अंधेरों से रात भर,
रहे जागते, पखेरू डाल पर,
उड़ना ही था, उन्हें हर हाल पर,
चाहे, करे कोशिशें,
अंधेरे, रुकने की रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

ठहर जा, दो पल, ऐ चाँद जरा,
अंधेरे हैं घने, तू लड़, कुछ और जरा,
भुक-भुक सितारों, संग खड़ा,
हो मंद भले, तेरे दामन की रौशनी,
पर, तू है चाँदनी,
कोशिशें, कर तू रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

यूँ जारी हैं, हमारी भी कोशिशें,
जलाए हमने भी, उम्मीदों के दो दीये,
लेकिन भारी है, इक रात यही,
व्याप्त निशा, नीरवता ये डस रही,
बुझने, ये दीप लगी,
करती कोशिशें, रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 15 June 2019

एकांत पल

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

यूँ लगा था, पहले पहल,
बड़े नीरव से हैं, वो एकांत पल,
दीर्घ श्वांस भरते होंगे, वो एकांत पल,
एकाकी रहती होंगी, वो हरपल,
सिमटे से, होंगे वो पल!
छाई होगी नीरवता, अनमना सा होगा हर पल!

यही सोच, सदियों तक,
पहुँचा था मैं, एकांत पलों तक,
ले अंकपाश, बेतहासा चूमती भाल,
कंठ लिए रव, चहक उठे पल,
जागृत थे, वो हर पल!
थी उनमें स्थिरता, धैर्य भरा था उनमें हर पल!

कलरव हैं, उनके अन्तः,
गुंजित हो उठते हैं, पल स्वतः,
मृदुल से वो पल, मुखर हैं अन्ततः,
रव उनमें, आदि से अन्त तक,
शान्त से, एकांत पल!
रव की मधुरता, आकंठ लिए थे एकांत पल!

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 13 October 2018

ठहरी सी रात

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?

हर क्षण, संग रही मेरे क्षणदा,
खेल कौन सा, जो संग मेरे इसने ना खेला!
ऊब चुका मैं, क्षणदा थकती ही नहीं,
आँगन मेरे ही है ये क्यूँ रुकी?

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?

नभ के तारे, ढ़ल चुके हैं सारे,
वो डग भरती, निकल पड़ी घर को कौमुदी!
झांक रहा, वो क्षितिज से अंशुमाली,
क्यूँ बैठी है मेरे घर विभावरी?

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?

मुझको ही, तू जाने दे विभावरी!
कुछ क्षण को, मै भी तो देखूँ वो प्रभाकिरण!
भर लूँ नैनों में, थोड़ी सी वो जुन्हाई,
देखूँ दिनकर की वो अंगड़ाई?

ठहरी है क्यूँ ये रात यहीं .....
क्या मेरे ही संग, नीरवता का मन भरा नहीं?
.............................................................
अर्थ:-
विभावरी, क्षणदा, नीरवता : - रात्रि, रात
जुन्हाई, कौमुदी : - चाँदनी
अंशुमाली, दिनकर : - सूर्य

Sunday 21 January 2018

आवाज न देना

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

सदियों तक था तुझमें ही अनुरक्त मै,
पाया ही क्या, जब तुझसे ही रहा विरक्त मैं?
मिली बस पीड़ा और बेचैन घड़ी,
अंतहीन प्रतीक्षा और यादों की लड़ी,
उस वीहड़ घाटी से मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

डूबा था मैं क्षितिज की नीरवता में,
तुम ही ले आए थे मुझको उस वीहड़ में!
असहनीय उदासीनता के क्षण में
पग-पग नीरवता के उस गहरे वन में,
उस निर्वात से बस मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

बिताई अरसों मैने इक प्रतीक्षा में,
तटस्थ रहा दुनिया से इक तेरी इच्छा में!
काटी तन्हा कितनी निर्जन रातें,
पाई है अंतहीन प्रतीक्षा की सौगातें,
उस प्रतीक्षा से बस मैं लौटा हूँ अभी-अभी....

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

Sunday 5 March 2017

उत्कंठा और एकाकीपन

दिशाहीन सी बेतरतीब जीवन की आपाधापी में,
तड़प उठता मन की उत्कंठा का ये पंछी,
कल्पना के पंख पसारे कभी सोचता छू लूँ ये आकाश,
विवश हो उठती मन की खोई सी रचनात्मकता,
दिशाहीन गतिशीलताओं से विलग ढूंढता तब ये मन,
चंद पलों की नीरवता और पर्वत सा एकाकीपन...

जीवन खोई सी आपधापी के अंतहीन पलों में,
क्षण नीरव के तलाशता उत्कंठा का ये पंछी,
घुँट-घुँट जीता, पल-पल ढूंढता अपना खोया आकाश,
मन की कँवल पर भ्रमर सी डोलती सृजनशीलता,
तब अपूर्ण रचना का अधूरा ऋँगार लिए ढूंढता ये मन,
थोड़ी सी भावुकता और गहरा सा एकाकीपन.....

रचनाएँ करती ऋँगार एकाकीपन के उन पलों में,
पंख भावना के ले उड़ता उत्कंठा का ये पंछी,
कोमल संवेदनाओं को मिलता अपना खोया आकाश,
नीरव सा वो पल देती उत्कंठाओं को शीतलता,
विविध रचनाओं का पूर्ण संसार बन उठता ये मन,
सार्थक करते जीवन, ये पर्वत से एकाकीपन....