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Saturday 22 January 2022

उनकी बातें

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

अधूरी ही, रह गई थी, सैकड़ों बातें,
उधर, स्वतः रातों का ढ़लना,
अंततः एक सपना,
आंखों में, भर गई थी उसकी बातें,
जैसे-तैसे, कटी थी रातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

संदली, वही, खुश्बू ले आईं हवाएँ,
छू कर, बह चली, इक पवन,
अजीब सी, चुभन,
बहके से क्षण की, बहकी सौगातें,
कह गईं, उनकी ही बातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

विहसते फूलों में, उनके ही अक्श,
कलियों में, उनकी इक हँसी,
पात-पात, चितवन,
दिलाती रही, हर क्षण उनकी यादें,
दिन भर, उनकी ही बातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

अधूरी ही, रह गई थी, सैकड़ों बातें,
हौले से, ढ़लने लगे, वे प्रहर,
उभरता, इक सांझ,
विविध रंग, और, लम्बी लम्बी रातें,
और, वो सपनों की बातें!

फिर, सुबह ले आई, उसी की भीनी यादें....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 7 November 2021

मध्य कहीं

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

कह भी पाता, तो क्या कह पाता!
ये सागर, कितना बह पाता!
लहर-लहर बन, खुद ही टकराता,
खुद को बिखराता,
अनकही सी, हर जज्बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

कल्पना कहें, या, कहें सपना उसे!
अब कह दें कैसे, बेगाना उसे,
अनकही वो बातें, वो ही सौगातें,
दिन और ये रातें,
संग मेरे, मेरी तन्हाई में गाते,
दिल के मध्य, कहीं!

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

अब जो ये शेष बचे हैं, संग मेरे हैं,
उन बातों में, भीगे रंग तेरे हैं,
फीके, ये लेकिन, शाम-सवेरे हैं,
वो यादों के रंग,
रहते हैं जो, अब मेरे ही संग,
दिल के मध्य, कहीं!

कितनी बातों के मध्य, बात रही,
दिल के मध्य, कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 28 August 2021

दो अलग बातें

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

चुप से, वो कहकहे, सारे अनकहे,
गूंजता वो आंगन, बहका सा ये सावन,
लरजते दो लब, सहमे वो दो पल,
उन पलों की, ये सौगातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

गुजर से गए जब, उभर आए तब,
नजरों से दूर, उभर आए नजरों में पर,
ख्यालों में तय, हो चले ये फासले,
हैरां करे, वो सारी यादें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

करे कैद, टिम-टिमाते वो सितारे,
टँके फलक पर, उन्हें अब कैसे उतारें,
यूँ ही देखते, बस रह से गए वहीं,
तन्हा, गुजरती रही रातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

छूकर गईं, फिर, उनकी ही सदा,
भूलें कैसे? ओ जाते पल, तू ही बता,
छू लें कैसे! बहती सी वो है हवा,
टूटी, यहाँ कितनी शाखें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 14 March 2020

अक्सर

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

निर्बाध, समय बह चलता है,
जीवन, कब रुकता है!
खो जाती हैं सारी बातें, कालचक्र पर,
पथ पर, रह-रह कर,
कसक कहीं, उठती है मन पर,
कह देनी थी, वो बातें,
रुक जाती थी जो आकर,
इन होंठों पर, 
अक्सर!

ठहरी सी, बातों के पंख लिए,
पखेरू, बस उड़ता है!
हँसता है वो, जीवन के इस छल पर,
रोता है, रह-रह कर,
मंडराता है, विराने से नभ पर,
कटती हैं, सूनी सी रातें, 
अनथक, करवट ले लेकर,
जीवन पथ पर, 
अक्सर!

कल-कल, बहता सा ये निर्झर,
रोके से, कब रुकता है!
फिसलन ही फिसलन, इस पथ पर,
नैनों में, बहते मंजर,
फिसलते हांथो से, वो अवसर,
देकर, यादों की सौगातें, 
चूमती हैं, आगोश में लेकर,
इन राहों पर,
अक्सर!

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इसी क्रम में,  अगली रचना  "अक्सर, ये मन" पढ़ने हेतु यहाँ "अक्सर, ये मन"  पर क्लिक करे

Friday 24 January 2020

और, मैं चुप सा

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

बज रही हो जैसे, कोई रागिनी,
गा उठी हो, कोयल,
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन,
बलखाती, निश्छल धार सी तुम!
और, मैं चुप सा!

गगन पर, जैसे लहराते बादल,
जैसे डोलते, पतंग,
धीरे से, ढ़लका हो आँचल, 
फुदकती, मगन मयूरी सी तुम!
और, मैं चुप सा!

कह गई हो, जैसे हजार बातें, 
मुग्ध सी, वो रातें,
आत्ममुग्ध, होता ये दिन,
गुन-गुनाती, हर क्षण हो तुम!
और, मैं चुप सा!

कितनी सारी, बातें करती हो तुम!
और, मैं चुप सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 26 December 2019

बातें

तड़पाती हैं कुछ बातें, अंदर ही अंदर,
ज्यूँ बहता हो खामोश समुंदर,
वो उठता, उफान लिखूँ,
बहा लाया जो तिनका, कैसे वो तुफान लिखूँ!

कहने को तो, ढ़ेर पड़े हैं जज्बातों के,
अर्थ निकलते दो, हर बातों के,
कैसे वो, दो बात लिखूँ,
उलझाती है हर बात, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

मिलन लिखूँ या विरह की बात लिखूँ,
सांझ लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
जज्ब हुए जो सीने में, क्यूँ वो जज्बात लिखूँ!

नम होती हैं आँखें, यूँ सूखते हैं आँसू,
ज्यूँ तपिश में, जलते हैं आँसू,
जलन, या संताप लिखूँ,
तड़पाते ये क्षण, मैं कैसे क्षण की बात लिखूँ!

दिन भर, कैसे जलता है सूरज तन्हा,
वो ही जाने, वो बातें हैं क्या,
वो अगन वो ताप लिखूँ,
रहता वो किस राह, कैसे उसकी चाह लिखूँ!

अगन लिखूँ या जलन की बात लिखूँ,
राख लिखूँ या लम्हात लिखूँ,
भूलूँ, या दिन-रात लिखूँ,
दफ्न हैं जो दिल में, कैसे वो जज्बात लिखूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 20 August 2019

चंद बातें

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चुप हो तुम, तो चुप है जहां!
फैली है जो खामोशियाँ!
पसरती क्यूँ रहे?
इक गूंज बनकर, क्यूँ न ढले?
चहक कर, हम इसे कह क्यूँ न दें?
चल पिरो दें गीत में इनको!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

तू खोल दे लब, कर दे बयां!
दबी हैं जो चिंगारियाँ!
सुलगती, क्यूँ रहें?
इक आग बनकर, क्यूँ जले?
इक आह ठंढ़ी, इसे हम क्यूँ न दें?
बंद होठों पर, इसे रख दे!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चंद बातों से, जला ले शमां!
पसरी है जो विरानियाँ!
डसती क्यूँ रहे?
विरह की सांझ सी, क्यूँ ढले?
मंद सी रौशनी, इसे हम क्यूँ न दें?
चल हाथ में, हम हाथ लें!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 4 June 2019

तुम्हारी ही बातें

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

हर बंधनों से, मुक्त था मैं कल तक,
यादें वही, ले आई है तुझ तक,
दूर जाऊँ मैं कैसे, मन को समझाऊँ मैं कैसे,
मुक्त, जाल से हो पाऊँ मैं कैसे,
मन पे घिरने लगे हैं, फिर वही जाल कल से..

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

वो अंतहीन सी, तुम्हारे प्रश्नों की लड़ी,
वो हँसी की, गूंजती फुलझड़ी,
प्रश्न के उस जाल में, बस मेरा उलझ जाना,
अनुत्तरित प्रश्नों का, वो जमाना,
मन को जलाने लगे, फिर वही प्रश्न कल से...

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

कभी चुपके, तुम्हारा दबे पाँव आना,
फेरकर नजरें, वहीं बैठ जाना,
मिन्नतों का फिर, अनथक सा वो सिलसिला,
हर बात पर, कोई शिकवा गिला,
तड़पाने लगे हैं मन, फिर वही बात कल से...

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

किसी झील सा, यूँ गुम-सुम सा था मैं,
ठहरा वहीं, चुप-चुप सा था मैं,
वही आहट सी आई, कोई हलचल सी लाई,
यादें तेरी, फिर कहीं झिलमिलाई,
मन को रुलाने लगे, फिर वही याद कल से..

तुम्हारी वो ही बातें, फिर सताने लगी है कल से..

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 17 April 2019

रुहानी बातें-पुरानी बातें

बड़ी ही रुहानी, थी वो पुरानी बातें!

सजाए बदन पर, संस्कारों का गहना,
नजरों का उठना, वो पलकों का गिरना,
लबों का हिलना, मगर कुछ भी न कहना,
शर्मो-हया की, वो ही पर्दों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

सुबह-सबेरे, उनकी गलियों के फेरे,
भरी दोपहरी, अमुआ के बागों में डेरे,
संध्या-प्रहर, रेडियो संग प्रियजनों के घेरे,
रूमानी रातें, संग सितारों की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें!

शिष्टता में, कुछ बुजुर्गों से न कहना,
खिदमत में उनकी, गर्व महसूस करना,
प्रथम आशीर्वचन, उन बुजुर्गों से ही लेना,
शिष्टाचार और परम्पराओं की बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

खेत-खलिहानों की, वो पगडंडियाँ,
ओस में भीगी हुई, गेहूँ की वो बालियाँ,
भींगकर पैरों में सटी, नाजुक सी पत्तियाँ,
फर्स पर घास की, कई सुहानी बातें,
रुहानी बातें, वर्षों पुरानी बातें...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 14 December 2018

खामोश तेरी बातें

खामोश तेरी बातें,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

संख्यातीत,
इन क्षणों में मेरे,
सुवासित है,
उन्मादित साँसों के घेरे,
ये खामोश लब,
बरबस कुछ कह जाते,
नवीन बातें,
हर जड़ विषाद से परे!

खामोश तेरी बातें,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

उल्लासित,
इन दो नैनों में मेरे,
अहसास तेरा,
है तेरे अस्तित्व से परे,
ये बहती हवाएं,
संवाद तेरे ही ले आए,
ये आमंत्रण,
हर जड़ अवसाद से परे!

खामोश तेरी बातें,,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

अंत-विहीन,
ऊँचे दरख्तों से परे,
तेरे ही साए,
गीत निमंत्रण के सुनाए,
अंतहीन व्योम,
तैरते श्वेत-श्याम बादल,
उनमुक्त ये संवाद,
हर जड़ उन्माद से परे !!

खामोश तेरी बातें,
हैं हर जड़ संवाद से परे ...

Tuesday 13 March 2018

बातें

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

वो चंद किस्से, वो चंद मुलाकातें,
फिर न जाने......
तुम कहां और हम कहां थे,
अब दामन में आए....
ये छोटे से दिन, वो लम्बी सी रातें....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

कुछ यादों के पल मिले थे जिन्दगी के,
वो दो चार पल......
जब बहके थे हम दिल्लगी से,
जीवंत पल वो खुशी के.....
अब गूंजते है जेहन में वो ही बातें.....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

वो ही चंद किस्से, वो ही चंद बातें,
फिर वही मुलाकातें....
वो ही संग जीवंत धड़कनों का,
वो बहकी सी जज्बातें....
काश! फिर वही पल मुझे मिल पाते.....

बस कहने को है ये दुनिया भर की बातें....

Tuesday 10 January 2017

संकुचित पल

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!

गर होते अंतराल, जो लम्बे से इस पल के,
तुम इठलाती-इतराती, अनथक सी करती फिर बातें,
रोक लेता तुम्हे मैं, उन अवलम्बित से पलों में ,
जिद जल्दी जाने की, तुम हमसे ना करते।

शरद ऋतु में जैसै, कुम्हलाया है ये पल भी,
कुछ कह दो अपने मन की, जाने वाला है ये पल भी,
विस्तार दे दो तुम इनको, देकर धड़कन की गर्मी,
सिमटकर बातों में तेरी, थम जाएगा ये पल भी।

ऐ पल! तू आकर बिखर, ठहर प्रहर दो प्रहर,
आ लेकर मीठी यादें, दे जा कुछ साँसों की सौगातें,
रोक लूँ अपने दिलवर को, बैठा लूँ बाँहें पकड़,
लम्बे हों बातों के पल, पल-पल फिर बीते ना प्रहर।

बिता लूँ मैं जीवन इस पल के, बाहों में तेरे,
क्या जाने फिर मिले ना मिले, ये पल, ये बाहों के घेरे,
सिमटते पलों की परिधि में, आओ हम ऐसे मिले,
जीवन के ये पलक्षिण, बिखरे साँसों संग तेरे।

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!

Monday 4 July 2016

तुम्हारी बातें-प्यार से तकरार तक

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी प्यारी-प्यारी सी बातें,
साँसों में संग घुली हुई वो मुलाकातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मैं इन्हें सारथी अपने जीवन पथ का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी बहकी-बहकी सी बातें,
अन्तस्थ दिलों में समाती वो इठलाती बातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मै इनको बस बहाना अपने जीने का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी भोली-भाली सी बातें,
तन्हाईयों में मुझको छेड़ती वो एहसासें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
बना लूँ मैं उन पलों को अफसाना सपनों का,
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी झूठी-मूठी वो बातें,
इस दिल को कचोटती वो कोरी बातें,
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,
कह दो अब कैसे जिक्र तक न करूँ मैं इनका?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
तुम्हारी व्यर्थ-निरर्थक बातें,
व्यंग्य वाण के बंधन में कसी वो बातें,
रोष की आँच में तली हुईं वो बातें,
विष की फुहार सी वो जहरीली बातें,
मान लूँ मैं कैसे इन्हे घास का इक तिनका?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

तुम्हारी बातें,
यही तो है पूंजी अपने जीवन का,
यही तो है फल अपनी जीवन साधना का,
साथ भला कब छोड़ेगी ये अंत तक,
कह दो कैसे बनने दूँ इन्हें साधन अपनी घुटन का?
तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका?

Friday 25 March 2016

धागे जज्बातों के

कितनी ही बातें हैं.......
दिल में कहने को,कोई सुन ले तो आकर!
धागे जज्बातों के.....
उलझे हैं, थोड़ा इनको सुलझा लें तो जाकर।

व्यथा के आँसू......
क्युँ सूखे हैं, थोड़ा इनको बह जाने दो झरकर,
चंद रातें ही बची हैं.....
जीने को, थोड़ा सा तो हँस लेने दो जी भरकर,

इतने पहरे क्युँ......
जीने पर, जज्बातों को मुखरित तू कर,
बात दबी सी जो........
दिल में, कह दे खुले व्योम में जाकर।

चंदन बना तू........
आँसुओं के, जीवन की बहती धारा में घिसकर,
व्यथा तो बस......
इक स्वर है, बाकी के सप्त स्वर तू कर प्रखर।

कितनी ही बातें हैं.......
दिल में कहने को,कोई सुन ले तो आकर!