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Sunday 4 February 2024

उस रोज

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

उस रोज!
ठहरा था, सागर पल भर को,
विवश, कुछ कहने को,
उस, बादल से,
लहराते, उस आंचल से!

उस रोज!
किधर से, बह आई इक घटा!
बदली थी, कैसी छटा!
छलकी थी बूंदे,
सागर के, प्यासे तट पे!

उस रोज,
चीर गया था, कोई सन्नाटों को,
छेड़ गया, नीरवता को,
अवाक था, मैं, 
प्रश्न कई थे, उस पल में!

उस रोज,
किससे कहता मैं, सुनता कौन!
खड़ा यूं ही, रहा मौन,
यूं गिनता कौन!
वलय कई थे धड़कन में!

नीरव से, बहते उस पल में,
ठहरे से, जल में,
हलचल कितने थे, उस रोज!

Sunday 14 February 2021

एक कशमकश

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

चाह कर भी, असंख्य बार,
कह न पाया, एक बार,
पहुँच चुका,
उम्र के इस कगार,
रुक कर, हर मोड़ पर, बार-बार,
सोचता हूँ,
गर, वक्त रहे, सत्य को सकारता,
मुड़ कर, उन्हें पुकारता,
दंश, ये न झेलता,
पर अब,
भला, कुछ कहूँ या ना कहूँ!

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

रोकती रही, ये कशमकश,
कर गई, कुछ विवश,
छिन चला,
इस मन का वश,
पर रहा खुला, ये मन का द्वार,
सोचता हूँ,
इक सत्य को, गर न यूँ नकारता,
भावनाओं को उकेरता,
दंश, ये न झेलता,
पर अब,
भला, कहूँ भी तो क्या कहूँ!

सोचता हूँ, कह ही दूँ!
सूई सा दंश ये, क्यूँ अकेला ही मैं सहूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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जो कहना हो, समय रहते कह देना ही बेहतर....
Happy Valentine Day

Sunday 13 December 2020

देश को न बाँटिए

अधिकार-पूर्वक, मांगिए,
मतलब साधिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

जयचंद न बनिए,
राह, जिन्ना की न चलिए,
देखे हैं हमनें, पराधीनता की पराकाष्ठा,
फिर, डिग न जाए, ये आस्था,
देश ये, बँट न जाए,
अपने हाथों, हाथ अपना, 
कट न जाए,
एक जिन्ना, राष्ट्र को ही, बाँट बैठा,
हाथ, खुद ही अपना, काट बैठा,
बचे हैं, कुछ रक्तबीज,
रोज ही, बोते हैं जो,
विभाजन के, रक्तिम विषैले-बीज!
पर, अब न होने देंगे, हम,
और विभाजन!
आप, सियासतें कीजिए,
रियायतें लीजिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

स्वार्थ-वश, होकर विवश,
कुछ भी बांचिए,
भले ही,
पर, देश को न बाँटिए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 23 February 2020

मंद मार्तण्ड

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

विवश बड़ा, हुआ दिवस का पहर, 
जागते वो निशाचर, वो काँपते चराचर!
भान, प्रमान का अब कहाँ?
दिवा, खो चली यहाँ,
वो दिनकर, दीन क्यूँ है बना?
निशा, रही रुकी,
उस निशीथिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

खिली हुई धूप में, व्याप्त है अंधेरा,
पूछ लूँ क्षितिज से, कहाँ छुपा है सवेरा!
अब तो, भोर भी हो चला,
चाँद, कहीं खो चला,
तमस, अब तलक ना ढ़ला!
याम, क्यूँ छुपी?
उस यामिनी की गोद में!

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

व्याप्त है, रात का, वो दुरूह पल,
तू ही बता, क्यूँ ये रात, कर रहा है छल!
अब तो, गुम हुई है चाँदनी,
गई, कहाँ वो रौशनी,
मार्तण्ड, मंद क्यूँ हो चला!
विभा, क्यूँ छुपी?
उस विभावरी की गोद में?

छुपी है क्यूँ रौशनी, रात की आगोश में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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शब्दार्थ:---------
प्रमान : दिन, विभा, याम
मार्तण्ड: सूर्य
निशीथिनी: रात, निशा, यामिनी

Tuesday 16 October 2018

नींद

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

सांझ ढले यूँ पलकों तले,
हौले-हौले कोई नैनों को सहलाता है,
ढ़लती सी इक राह पर,
कोई हाथ पकड़ कहीं दूर लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

उभर आते हैं दृश्य कई,
पटल से दृश्य कई, कोई मिटा जाता है,
तिलिस्म भरे क्षण पर,
रहस्यमई इक नई परत कोई रख जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

बेवश आँखें कोई झांके,
कोई अंग-अग शिथिल कर जाता है,
कोई यूँ ही बेवश कर,
खूबसूरत सा इक निमंत्रण लेकर आता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

नींद सरकती है नैनों में,
धीरे से कोई दूर गगन ले जाता है,
जादू से सम्मोहित कर,
तारों की उस महफिल में लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

Thursday 10 November 2016

सिहरन

सिहर सिहर कर ....
आज अधरों से फूटी है दो बात,
चुप-चुप ज्युँ ....
गई हो रौशनी छिप छिप कर आई हो रात,
विवश हुए हम इतने बदले हैं ये कैसे हालात।

सिमट सिमट कर  ....
रह गई अब इस मन की अभिलाषा,
विलख-विलख ज्यूँ,
रोई हो बदली और आकाश हुआ हो प्यासा,
विवश हुए हम इतने छूट चुकी दामन से आशा।

बहक बहक कर  .....
क्षितिज पर छाई है भरियाई सी शाम,
सहम-सहम ज्यूँ,
खोये से है हम और नदी का तट हो निष्काम,
विवश हुए हम इतने भीगे-भीगे नैन हुए हैं नम।।

Thursday 24 March 2016

ये क्या कह गया तुमसे नशे में

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

जाम महुए की पिला दी थी किसी नें,
उस पर धतूरे की भंग मिलाई थी किसी ने,
मुस्कुराकर शाम शबनमी बना दी थी आप ने,
उड़ गए थे होश मेरे, मन कहाँ रह गया था वश में।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

यूँ तो मैं पीता नही जाम हसरतों के,
पिला दी थी दोस्तों नें कई जाम फुरकतों के,
मुस्कुराए आप जो छलके थे जाम यूँ ही लबों पे,
होश में हम थे कहाँ, देखकर आपको सामने।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

ये दो नैन मयखाने से लग रहे आपके,
जाम कई हसरतों के छलकाए है यूँ आपने,
लड़खड़ाए मेरे कदम आपकी मुस्कुराहटों में,
उड़ चुके हैं होश मेरे, मन विवश आपके सामने।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?