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Tuesday 30 November 2021

जीवंतता

चाहा, रोक लूं पवन को, शाख बन कर,
रख लूं, यूं ही कहीं, हाथ धर कर!

पर वो, इक क्षणिक बुलबुला,
चंचल चित्त, चंचला,
निराश मन, पर छोड़े कहां, आस मन,
न तोड़े, कल्पना, 
न चाहे, इक पल भूलना,
न देखे, रात-दिन!
चाहा रोक लूं, पवन को, शाख बन कर!

अनन्त राह, अलग ही, प्रवाह,
इक, अलग ही चाह,
निरंतर, इक दिशा लपक जाए पवन,
ना करे, परवाह,
ना ही धरे, वो बाँह कोई,
खुद में ही, खोई!
कैसे रोक लूं, पवन को, शाख बन कर!

यूं, गति ही, उसकी जीवंतता,
गति, एक विवशता,
जड़ जाए, जड़ता में, कैसे वो जीवंत!
एक कोरी कल्पना,
पलकों में, ये पल बांधना,
बस, एक सपना!
कैसे रोक लूं, पवन को, हाथ धर कर!

चाहा रोक लूं, पवन को, शाख बन कर,
रख लूं, यूं ही कहीं, हाथ धर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 16 December 2015

विवशताएँ

मन विवश क्युं?
भावनाएं बेकल क्युं?
प्यार कुंठित क्युं?

क्युं है ये दायरे,
क्युं हैं ये पहरे,
क्युं है ये विवशता,

क्या प्यार के अहसास को
जन्म पाने की भी उम्र तय होती है?
विवशताओं के दायरों मे पिरोए संबंध
क्या जन्म दे पाते हैं प्यार को?
क्या इनमे भावनाओं को जगाने की
प्रचूर ऊष्मा होती है?

शायद नहीं....!

जीवन के सुदूर पलों का प्यार,
शायद बंदिशों मे दब कर 
दम तोड़ देती है या फिर
दुनिया इन्हें नाजायज ठहरा देती है।

क्या प्यार कभी नाजायज हो सकता है?