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Tuesday 13 November 2018

बिखरे शब्द

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

विचलित, कर सके ना इन्हें,
स्याह रंग के ये पहरे,
रंगों में डूबकर, ये आए हैं पन्नों पे उभर,
मोतियों से ये, अब हैं उभरे...

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

बड़े बेनूर थे, ये शब्द पहले,
भाव में गए पिरोए,
काव्य में ढलकर, आए हैं पन्नों पे उभर,
निखर गए, अब इनके चेहरे....

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

आयाम, कितने इसने भरे,
रूप कई इसने रचे,
भंगिमाएंँ लिए, ये आए पन्नों पे उभर,
करती हुई, ये नृत्य कलाएँ...

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

धूमिल भी क्या करेंगी इन्हें,
वक्त की ये ठोकरें,
विविधता लिए, ये आए पन्नों पे उभर,
सदाबहार बन, ये जो ठहरे.....

शब्दों, के ये रंग गहरे!
लेखनी से उतार, किसने पन्नों पे बिखेरे......

Sunday 24 December 2017

मौलसिरी

कह भी दो ना, यूँ मुरझाई हो तुम क्यूँ मौलसिरी?

हर मौसम सदाबहार थे तुम,
प्रकृति के गले का हार थे तुम,
पतझड़ में भी श्रृंगार थे तुम,
खुश्बू लिए बयार थे तुम.....

मुरझाई हो क्यूँ, तुम किससे गई हो हार मौलसिरी?

थे कितने ही विशाल तुम,
हर जवाब में थे इक सवाल तुम,
हरितिमा के थे टकसाल तुम,
गंध चिरपुष्प हर साल तुम.....

कुम्हलाई हो क्यूँ, है किसका तुम्हें मलाल मौलसिरी?

खुश्बुओं में थे लाजवाब तुम,
थे शुष्क ऋतु में झरते आब तुम,
काँटों मे थे खिले गुलाब तुम,
जटिल प्रश्न के थे जवाब तुम.....

मनुहाई हो क्यूँ, क्या टूटे हैं तेरे भी ख्वाब मौलसिरी?

कह भी दो ना, यूँ मुरझाई हो तुम क्यूँ मौलसिरी?
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