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Friday 10 December 2021

रूठ चला साया

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रही बैठी, संग-संग ठहरी, भर दोपहरी, 
कुछ वो चुप, कुछ हम गुमसुम,
क्षण सारा, बीत चला,
असमंजस में, ये सांझ ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रिक्त ढ़ले, इक दुविधा में सारे ही क्षण,
हरजाई सी, अपनी ही परछाईं,
मेरे ही, काम न आई,
एकाकी, ये दिन रात ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

शब्द-विहीन ये पल, अर्थ-हीन कितने,
वाणी बिन तरसे, शब्द घुमरते,
रह गए होंठ, सिले से,
ये तन, सायों से ऊब चला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 August 2019

परछाईं तेरी

वो तुम थे, या थी बस परछाईं तेरी,
थी खुश्बू कोई, जिनसे मिलती थी तन्हाई मेरी,
महक उठता था, चमन, वो गुलशन सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

इक हमसाए सी रही, परछाईं तेरी,
इक धुंध सी थी, भटकती थी जहाँ तन्हाई मेरी,
धुआँ-धुआँ सा हुआ, था वो आलम सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

थे धुंध के पहरे, या थी जुल्फें तेरी,
उलझते थे वो बादल, या उलझती थी लटें तेरी,
यूं वादियों से कहीं, था तन्हाई ने पुकारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

हैरां कर गई, चुप सी वो बातें तेरी,
तन्हाईयों से हुई, वो लम्बी सी मुलाकातें मेरी,
ढूंढता हूँ अब, उन्ही लम्हातों का सहारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

दूर जाती रही, मुझसे परछाईं तेरी,
यूँ  सताती रही, पास आकर वही तन्हाई मेरी,
गुजरा न वो पल, बेरहम वो वक्त ठहरा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 31 December 2017

मेरा ही साया

वो नही कोई पराया, था वो बस मेरा ही साया.......

छाँव तनिक न जिसे रास आया,
कड़ी धूप में ही वो खिल खिलाया,
तन्हा मगर उसने खुद को पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

रहा ढूंढता वो सदा मेरी ही काया,
मेरी ही सासों की धुन पर वो गाया,
पाँवों तले जिसने जीवन बिताया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

किया उम्र भर जिसको पराया,
उसके बिना मैं कभी जी न पाया,
इर्द गिर्द मेरे वो सदा मंडराया,
वो कोई गैर नहीं, था वो मेरा ही साया.......

स्पर्श वो ही मेरा हृदय कर गया,
हाथों से जिसको कभी छू न पाया,
न ममता ने जिसको सहलाया,
वो! पराया नहीं,  था वो मेरा ही साया.......

आत्मा में अब वो मेरे समाया,
घड़ी अन्त का, जब निकट आया,
सिरहाने ही मैने उसको पाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......

जब चिता पर गया मैं लिटाया,
मुझसे पहले वहाँ आया वो साया,
हौले से उसने भी सहलाया,
वो कोई और नहीं, था वो मेरा ही साया.......