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Sunday 20 December 2020

और कितने दूर

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

सब तो, छूट चुका है पीछे,
फिर भागे मन, किन सपनों के पीछे,
वो, जो है रातों के साए,
कब हाथों में आए,
जाने, कहाँ-कहाँ, भटकाएगी,
अधूरी मन की चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

जाने कब, भूल चुके सब,
मन के स्नेहिल बंधन, तोड़ चले कब,
बिसराए, नेह भरे गंध, 
वो गेह भरे सुगंध,
तन्हा पल में, याद दिलाएगी,
बन कर इक आह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

अब तक, लब्ध रहा क्या!
क्या प्रासंगिक थी, सारी उपलब्धियाँ!
गिनता हूँ अब तारों को,
मलता हूँ हाथों को,
झूठी चाहत, क्या करवाएगी?
बस, भटकाएगी राह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

प्रसंग कई, जब छूट चले,
जाना, जब खुद अप्रासंगिक हो चले,
तर्क, भला  क्या देना!
राहों में, क्या रोना!
इस प्रश्नकाल में, जग जाएगी!
इक तृष्णा इक चाह!

और कितने दूर, ले जाएगी ये राह!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 24 December 2017

मौलसिरी

कह भी दो ना, यूँ मुरझाई हो तुम क्यूँ मौलसिरी?

हर मौसम सदाबहार थे तुम,
प्रकृति के गले का हार थे तुम,
पतझड़ में भी श्रृंगार थे तुम,
खुश्बू लिए बयार थे तुम.....

मुरझाई हो क्यूँ, तुम किससे गई हो हार मौलसिरी?

थे कितने ही विशाल तुम,
हर जवाब में थे इक सवाल तुम,
हरितिमा के थे टकसाल तुम,
गंध चिरपुष्प हर साल तुम.....

कुम्हलाई हो क्यूँ, है किसका तुम्हें मलाल मौलसिरी?

खुश्बुओं में थे लाजवाब तुम,
थे शुष्क ऋतु में झरते आब तुम,
काँटों मे थे खिले गुलाब तुम,
जटिल प्रश्न के थे जवाब तुम.....

मनुहाई हो क्यूँ, क्या टूटे हैं तेरे भी ख्वाब मौलसिरी?

कह भी दो ना, यूँ मुरझाई हो तुम क्यूँ मौलसिरी?
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