Wednesday 19 July 2017

कभी

कभी गुजरना तुम भी मन के उस कोने से,
विलखता है ये पल-पल, तेरे हो के भी ना होने से...

कुछ बीत चुके दिन सा है...
तेरा मौजूदगी का अनथक एहसास!
हकीकत ही हो तुम इक,
मन को लेकिन ये कैसे हो विश्वास?
कभी चुपके से आकर मन के उस कोने से कह दो,
इनकी पलकों से ये आँसू यूँ ही ना बहने दो।

माना कि बीत चुका कल ....
फिर वापस लौट सका है ना मुड़कर,
पर मन का ये गुमसुम सा कोना,
अबतक बैठा है बस उस कल का होकर,
कहता है ये, वो गुजरा वक्त नहीं जो फिर ना आएंगे,
वापस मेरी गलियों में ही वो लौट कर आएंगे।

कल के उस पल में था जीवन...
नृत्य जहाँ करते थे जीवन के हर क्षण,
गूँज रही है अब तक वो तान,
रह रह कर गीत वही दोहराता है वो कोना,
सांझ ढले, दोबारा धुन वही सुनने को तुम आ जाना,
कोई बहका सा सुर बहकी साँसों में भर जाना।

यूँ गुजरना तुम कभी मन के उस कोने से,
विलखता है ये पल-पल, तेरे हो के भी ना होने से...

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