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Sunday 20 September 2020

इंतजार

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

दुविधाओं से भरे, वो शूल से पल,
निरंतर आकाश तकते, दो नैन निश्छल,
संभाले हृदय में, इक लहर प्रतिपल,
वही, इंतजार के दो पल,
करते रहे छल! 
क्षीण से हो चले, सारे आसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

थमी सी राह थी, रुकी सी प्रवाह,
उद्वेलित करती रही, अजनबी सी चाह,
भँवर बन बहते चले, नैनों के प्रवाह,
होने लगी, मूक सी चाह,
दे कौन संबल!
बिखरा, तिनकों सा वो संसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

टूटा था मन, खुद से रूठा ये मन,
कैसी कल्पना, कैसा अदृश्य सा बंधन!
जागी प्यास कैसी, अशेष है सावन,
क्यूँ हुआ, भाव-प्रवण!
धीर, अपना धर!
स्वप्न, कब बन सका अभिसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 24 September 2017

किंकर्तव्यविमूढ

गूढ होता हर क्षण, समय का यह विस्तार!
मिल पाता क्यूँ नहीं मन को, इक अपना अभिसार,
झुंझलाहट होती दिशाहीन अपनी मति पर,
किंकर्तव्यविमूढ सा फिर देखता, समय का विस्तार!

हाथ गहे हाथों में, कभी करता फिर विचार!
जटिल बड़ी है यह पहेली,नहीं किसी की ये सहेली!
झुंझलाहट होती दिशाहीन मन की गति पर,
ठिठककर दबे पाँवों फिर देखता, समय का विस्तार!

हूँ मैं इक लघुकण, क्या पाऊँगा अभिसार?
निर्झर है यह समय, कर पाऊँगा मैं केसे अधिकार?
अकुलाहट होती संहारी समय की नियति पर,
निःशब्द स्थिरभाव  फिर देखता, समय का विस्तार!

रच लेता हूँ मन ही मन इक छोटा सा संसार,
समय की बहती धारा में मन को बस देता हूँ उतार,
सरसराहट होती, नैया जब बहती बीच धार,
निरुत्तर भावों से मैं फिर देखता, समय का विस्तार!

Wednesday 6 April 2016

अभिसार

ये घर मेरा है तेरे लिए, पर यह तेरा संसार नहीं,
बनी है तू मेरे लिए, पर मैं तेरा सार नही,
हुए पू्र्ण तुम मेरे ही संग, पर मैं तेरा अभिसार नहीं।

जिस रूप का अक्श है तू, जीता था वो मेरे लिए,
जिस नक्श में ढ़ली है तू, वो रूप है मेरे लिए,
मन मे तेरे रहता हूँ मैं, भटकती ये आत्मा तेरे लिए।

कुछ लेख विधि का ऐसा, लकीर हाथों मे वो नहीं,
मन ढ़ूंढ़ता है जिसे, मिलता नही वो शख्स कहीं,
नक्श एक दफन हो रही, फिर उस हृदय में ही कहीं।

हर शख्स फिरता यहाँ, पनघट पे ही प्यासा यूँ हीं,
कुछ बूँद के मिल जाने से, प्यास वो बुझी नहीं,
अनजान सी प्यास की, तलाश में मन अतृप्त हैं कहीं।

काश! मन चाहता है जिसे, संसार भी मिलता वही,
बूंदों की बौछार में, भटकता कोई प्यासा नही,
पूर्ण होती वो संग-संग, फूलों से हम खिल जाते यहीं।