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Saturday 23 March 2024

वो कौन

वो कौन, छेड़े है मन वीणा के तार,
गा उठा धुन कोई नया,
ये जर्जर सितार!

वो कौन, जो पहले, स्वप्न सा आया,
फिर, पलकों में समाया,
इंद्रधनुष सी, कैसी, वो परछाईं,
छुई-मुई सी, मुरझाई,
है वो कोई भरम, टूटे जो पल-पल,
कैसा वहम, छूटे ना इक पल!

वो कौन..

मन की जमीं पे, वृक्ष सा वो उभरा,
बसंत सा वो जैसे संवरा,
नृत्य कर उठे, मृदु वे पात-दल,
हर ओर, जैसे हलचल,
दो नैन जैसे, झांकते हों हर-पल,
घेरे वे ही, एहसास पल-पल!

वो कौन..

आए चलकर, उतर कर बादलों से,
झांके छुपके, आंचलों से,
हृदय, धुन इक उसी की सुनाए,
सुनहरे गीत कोई गाए,
आज लय पर, थिरकते वे बादल,
गाने लगे हैं, संगीत कलकल!

वो कौन, छेड़े है मन वीणा के तार,
गा उठा धुन कोई नया,
ये जर्जर सितार!

Sunday 5 November 2023

नन्हीं दीप


हो चला एहसास, बंध चली उम्मीद,
मद्धिम सी जल रही, यूं कहीं,
नन्हीं सी, इक दीप!

यूं तो कम न थे, झौंके,
उमरते धूल, और चुभते शूल राह के,
दबी सी इक घुटन,
खौफ, उन अंधेरों के!
पर कहीं, जलकर हौसला देती रही,
नन्हीं सी, इक दीप!

खोए, उजालों में कहीं,
हर नजर, ढूंढ़ती है अपनी ही जमीं,
टूटे वो सारे सपने,
बिखरे, नैनों की नमीं!
पर, छलके प्यालों संग, जलती रही,
नन्हीं सी, इक दीप!

विलगते, सांझ के साए,
बिछड़ते, मद्धम रात के वो सरमाए,
टूटे तारों सा गगन,
कौन सिमेट कर लाए!
पर, जलती रही, मन की गलियों में,
नन्हीं सी, इक दीप!

हो चला एहसास, बंध चली उम्मीद,
मद्धिम सी जल रही, यूं कहीं,
नन्हीं सी, इक दीप!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 16 May 2023

अक्सर

अक्सर, जग आए इक एहसास....

रुक जाए, घन कोई चलते-चलते,
घिर आए, इक बदली,
गरजे कोई बादल,
चमके बिजुरी,
उस सूने आकाश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

झुक जाए, पेड़ घना सूने से रस्ते,
और संग करे अटखेली,
छू कर बहे पवन,
वही अलबेली,
हो, जिसकी आस!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

हो अधीर मन, पाने को इक पीड़,
ज्यूं सदियों अंक पसारे,
बैठा हो, इक तीर,
बहते वे धारे,
ठहर जाते काश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

क्यूं, छल जाए अनमनस्क मन,
क्यूं, छलके कोई नयन,
क्यूं, रुक जाए सांस,
क्यूं, टूटे आस,
क्यूं, विरोधाभास!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 30 April 2023

मूंदो तो पलकें

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

हो शायद, नीर किसी की नैनों का,
आ छलका हो, पीर उसी का,
या गाते हों, कोई गीत,
समय की धुन पर, हलके-हलके!

मूंदो तो पलकें!

समझ पाओगे, डूबे नैनों में है क्या,
बहता सा क्यूं वो इक दरिया,
झर-झर, बहते वे धारे,
हर-दम रहते क्यूं, छलके-छलके!

मूंदो तो पलकें!

विचलित क्यूं सागर, शायद जानो,
हलचल उसकी भी पहचानो,
तड़पे क्यूं, आहत सा,
लहरें तट पर, क्यूं, बहके-बहके!

मूंदो तो पलकें!

चुप-चुप हर शै, जाने क्या कहता,
बहते से, एहसासों में रमता,
कभी, भर आए मन,
जज्बात कभी ये, लहके-लहके!

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 13 August 2022

एहसास


वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो बांध गए, किन एहसासों की डोरी से,
शायद चोरी से!
चुपके से, यूं पांव दबे,
जब सांझ ढ़ले,
ढ़लती किरणों संग, उनकी ही बात चले,
रात ढ़ले,
जिन्दा हो, एहसास कोई,
है साथ वही!

वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

वो कब ठहरे, रुक जाए कब, यूं राहों में,
उन्ही, आहों में,
भर दे, हल्की सिहरन,
उस, छांव तले,
जब भोर जगे, फिर उनकी ही बात चले,
राह चले,
झौंकों सी, इक वात कोई,
हो, संग वही!

वो कोई खुश्बू,
वो जिन्दा सा, एहसास कोई!
वो इक झौंका,
वो बंधा सा, सांस कोई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 3 August 2022

काश


धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, वो एहसास, सुखद न होते इतने,
काश, लगते, इतने न वो अपने,
काश, आते न वो सपने,
यूं दूर बैठी, सिमटी वो परछाईं,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, कुम्भला जाते ये खिले एहसास,
काश, न आते, वो मन को रास,
काश, यूं भूल जाते हम,
वो बदली, बरस भी न जो पाई,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

काश, छू न लेती यूं परछाइयाँ हमको,
काश, यूं न बांधती यहां हमको,
काश, बहती न, ये पवन,
कह गई जो, वही इक कहानी,
याद बहुत आई!

धुंधली सी, वो परछाईं,
याद बहुत आई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 1 July 2022

बिन पूछे


मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जैसे, बिन पूछे,
इक परदेसी, आ बैठा हो आंगन,
सूने से पर्वत पर, घिर आया हो घन,
बदली, ले आया हो सावन,
बूंदों की छमछम से, मन,
दीवाना सा.....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

कोई, क्या जाने,
हलचल, क्यूं , सागर के तट पर,
सदियों, इक खामोशी क्यूं पर्वत पर,
बूंदें, क्यूं उस बदली में गौन,
अन्तःमन, क्यूं इतना मौन,
बेगाना सा .....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जाने, है कैसा,
अंजाने धागों का, यह गठबंधन,
पल-पल, अजीब सा इक आकर्षण,
परछाईं से, बढ़ता अपनापन,
हर ओर, गहराता सूनापन,
सुहाना सा .....

मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 7 January 2022

मौसम

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

झांक कर गुम हुई, इन खिड़कियों से रौशनी,
लौट कर, दोबारा फिर न आईं,
दिन यूं ढ़ला, ज्यूं हों, रातें इक सुरंग सी,
धूप थी, पर उजाले कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

छूकर किनारों को, गुजर जाती थी धार इक,
यकायक, रुख ही, बदल चुकी,
बेसहारे, निहारे दूर अब भी वो किनारे,
शबनम भरे, किनारे कितने नम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

टीस बनकर, चुभती रही, सर्द सी इक पवन,
पले, एहसास कहां अब गर्म से,
उड़ा कर ले चली, कहीं वो ही पुरवाई,
उस ओर, जिधर तुम थे न हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

बदले हैं मौसम, बदले तराने, बदली सी धुन,
गुम हुई, पायलों की वो रुनझुन,
सुर बिन, कैसे खिले मन के ये वीराने,
इस धुन में, संगीत कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 30 November 2021

एक झौंका

हौले से, तन को जरा छू कर,
बह चला, एक झौंका, न जाने किधर!

रह गया वो, बस इक, एहसास बनकर,
या, बना सहचर, साँस बनकर,
या, चल रहा संग, वो हर कदम पर,
एक झौंका, न जाने किधर!

कल तलक, ऐसा न था कोई एहसास,
पर अब तक, कहाँ कोई पास!
गुम कहीं, वो तोड़कर मेरा विश्वास,
एक झौंका, न जाने किधर!

रोके कब रुकी, वो खुश्बू हो या पवन,
यूं होती जुदा, ज्यूं बूंदों से घन,
मुड़ चला, झंझोरकर शाख के तन,
एक झौंका, न जाने किधर!

शंकाओं से घिरा, हृदय का, हर शिरा,
जाने कहीं झंझावातों में घिरा,
भटकता हो, सुनसान राहों में पड़ा,
एक झौंका, न जाने किधर!

हौले से, तन को जरा छू कर,
बह चला, एक झौंका, न जाने किधर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 12 September 2021

वो तुम हो

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिलते रहे, क्षितिज की, लाली में सदा,
देकर, इक सिंदूरी सी सदा,
विरान मेरे आंगन में, रोज उतरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ, बहकाने को आएं, दशों दिशाएँ,
रस्ते कितने, दूर दिशाओं को ले जाएँ,
और, ले आते हो, तुम यहाँ,
यूँ अफसाने, सदियों के, लिखते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

उठते हो, भीनी सी ख़ुशबू बन के,
छलके, एहसासों संग, बूँदों में ढ़लके,
गहराई, सावन सी, पलकें,
उमंग कई, एहसासों मे, भरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिले भी कहीं, पल दो पल, यदा-कदा,
पर हो, एहसासों में, सर्वदा,
टुकड़े, मेरे ही टूटे पल के, चुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 11 September 2021

टीस

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

अर्थहीन सभी लगते, यूँ, चेहरे सारे,
टिमटिम से, नैनों के दो तारे,
अपलक, जाने किसकी, राह निहारे!

यूँ, अन्तः सौ-सौ अन्तर्द्वन्द्व संभाले,
पग-पग, राहों नें द्वन्द डाले,
लगाए, चंचल से, एहसासों पे ताले!

घूंघट तले, कितने ही, सावन जले,
चुप-चुप, सारे अरमान पले,
वो अनकहे, बिन कहे, कोई सुन ले!

तड़पाए मन, भावों के आवागमन,
उलझाए, अन्तः अवलोकन,
लब कैसे दे, यूँ, शब्दों को थिरकन!

शिकन, यूँ चेहरों पे, भाव न गढ़ते,
नैनों में, यूँ न, बहाव उतरते,
टीस भरे, गहरे से ये घाव ना रहते!

आसान कहाँ, भावों को अभिव्यक्ति देना...
यूँ, मूक मनोभावों को, सुन लेना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 6 July 2021

ऊहापोह

स्मृति के, इस गहराते पटल पर,
अंकित, हो चले वो भी!

यूँ, आसान नहीं, इन्हें सहेजना,
मनचाहे रंगों को, अनचाहे रंगों संग सीना,
यूँ, अन्तःद्वन्दों से, घिर कर,
स्मृतियों संग, जीना!

पर, वक्त के, धुँधलाते मंज़र पर,
अमिट, हो चले वो भी!

यूँ, जीवन के इस ऊहापोह में,
रिक्त रहे, कितनी ही, स्मृतियों के दामन,
बिखरी, कितनी ही स्मृतियाँ,
सँवर जाते वो काश!

जीवन के, इस गहराते पथ पर,
संचित, हो चले वो भी!

यूँ कल, विखंडित होंगे, ये पल,
फिर भी, स्मृतियाँ, खटखटाएंगी साँकल,
देंगी, जीवन्त सा, एहसास,
अनुभूति भरे, पल!

सांध्य प्रहर, गहराते क्षितिज पर,
शामिल, हो चले वो भी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 29 June 2021

फिर याद आए

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

था कोई साया, जो चुपके से पास आया,
थी वही, कदमों की हल्की सी आहट,
मगन हो, झूमते पत्तियों की सरसराहट,
वो दूर, समेटे आँचल में नूर वो ही,
रुपहला गगन, मुझको रिझाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

हुआ एहसास, कि तुझसे मुक्त मैं न था,
था रिक्त जरा, मगर था यादों से भरा,
बेरहम तीर वक्त के, हो चले थे बेअसर,
ढ़ल चला था, इक, तेरे ही रंग मैं,
बेसबर, सांझ ने ही गीत गाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

ढ़लते गगन संग, तुम यूँ, ढ़लते हो कहाँ,
छोड़ जाते हो, कई यादों के कारवाँ,
टाँक कर गगन पर, अनगिनत से दीये,
झांकते हो, आसमां से जमीं पर,
वो ही रौशनी, मुझको जगाए....

फिर याद आए, वो सांझ के साए....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 29 March 2021

रंगों ने छू लिया

यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!

भारी थी इक-इक साँसें, मुस्काते वो कैसे,
मुरझाए चेहरों को, भा जाते वो कैसे,
पर, फिर जीवन की, इक उम्मीद जगी थी,
आशाओं की, इक डोर बंधी थी,
फाल्गुनी, एहसासों नें ही कुछ किया...

यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!

फीके से पल सारे, गहरे रंगों में डूब चले,
मन को, पुरवैय्यों के झौंके, लूट चले,
ये चैती बयार, मुस्काती, कुछ यूँ आई थी,
आशाओं के, कुछ पल ले आई थी,
जिन्दा, एहसासों को उसने ही किया...

यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 7 February 2021

दूर कितना

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

छू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
कभी, पाता हूँ, दूर कितना!
पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास, 
द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

हो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

गुजरते हो, कभी, मुझको यूँ ही छूकर,
जगा जाते हो, कभी जज्बात,
पल-पल, भींच लेते हो, भरकर अंकपाश,
शालीन सा, पर, चंचल है कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

काश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
इतने खाली, ये शहर न होते!
गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 5 November 2020

हैं हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

सूनी ये सड़क है, न अन्दर धड़क है,
खोए, गुम-सुम से हैं, बड़े चुप-चुप से हैं, 
ओढ़े हैं, खामोशियाँ!
जागे एहसासों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे, 
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

आता नहीं, अब कोई इस मोड़ तक,
खुशियाँ नहीं, शहर के किसी छोड़ तक,
पसरी है, विरानियाँ!
भीगी साहिलों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

मुद्दतों हुए, तुम कहाँ, खुल कर हँसे,
आ किसी कैदखाने में, खुद ही हो फ॔से,
गुम है, जिन्दगानियाँ!
लुटे चैनो-भ्रम के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

शर्मसार, कर ना जाएं, कल ये तुम्हें,
रूठकर, मुड़ ना जाएं, हाथों से ये लम्हे,
कैसी है, रुसवाईयाँ!
बीते लम्हातों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 3 November 2020

निर्मम, जाने न मर्म!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

ढ़ँक लूँ, भला कैसे ये घायल सा तन!
ओढूं भला कैसे, कोई आवरण!
दिए बिन, निराकरण!
टटोले बिना, टूटा सा अंतः करण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

हो चले थे सर्द, पहले ही एहसास सारे!
चुभोती न थी, काँटों सी चुभन!
दुश्वार कितने, हैं क्षण!
जाने बिना, पल के सारे विकर्षण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

गर, सुन लेते मन की, तो आते न तुम!
दर्द में सिहरन, यूँ बढ़ाते न तुम!
दे गई पीड़, तेरी छुअन!
सर्द आहों में भर के, सारे ही गम,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 23 September 2020

भ्रम में हम हैं

जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!

क्या वो, महज इक मिथ्या था?
सत्य नहीं, तो वो क्या था?
पूर्णाभास, इक एहसास देकर वो गुजरा था,
बोए थे उसने, गहरे जीवन का आभास,
कल्पित सी, उस गहराई में,
कंपित है जीवन मेरा,
ये सच है? 
या इक भ्रम में हम हैं!

जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!

सो, उठता हूँ, बस चल पड़ता हूँ!
चुनता हूँ, उन स्वप्नों को!
बुनता हूँ, टूटे-बिखरे से कंपित हर क्षण को,
भ्रम के बादल में, बुन लेता हूँ आकाश,
शायद, विस्मित इस क्षण में,
अंकित है, जीवन मेरा,
ये सच है? 
या इक भ्रम में हम हैं!

जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 13 August 2020

पाओगे क्या

सीने पर मेरे, सर रख कर पाओगे क्या?

गर, जिद है तो....
इस सीने पर, तुम भी, सर रख लो,
रिक्त है, सदियों से ये,
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

है कुछ भी तो, नहीं यहाँ!
हाँ, कभी इक धड़कन सी, रहती थी यहाँ,
पर, अब है, बस इक प्रतिध्वनि,
किसी के, धड़कन की,
शायद, वो ही, सुन पाओगे!
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

इक आकृति, थी उत्कीर्ण!
पर, अब तो शायद, वो भी हैं जीर्ण-शीर्ण,
और, सोए हों, एहसासों के तार,
भर्राए हों, दरो-दीवार,
आभाष, वो ही, कर पाओगे!
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

टूटे बिखरे, हों कुछ पल!
समेट लेना उनको, भर लेना तुम आँचल,
कुछ कंपन, एहसासों के, देना,
पर, उम्मीद न भरना,
कल, तुम भी, छल जाओगे!
पाओगे क्या!

इन रिक्तियों में.....

गर, जिद है तो....
इस सीने पर, तुम भी, सर रख लो,
रिक्त है, सदियों से ये,
पाओगे क्या?

सीने पर मेरे, सर रख कर पाओगे क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 6 March 2020

बरसों ढ़ले

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पनपा, इक आस,
फिर जागे, सुसुप्त वही एहसास,
फिर जगने, नैनों में रैन चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर पंकिल, नैन हुए,
फिर, कल-कल उमड़ी करुणा,
फिर स्नेह, परिधि पार चले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर मिली, वही व्यथा,
फिर, झंझावातों सी बहती सदा,
फिर एकाकी, दिन-रैन ढ़ले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!

बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)