Showing posts with label किरण. Show all posts
Showing posts with label किरण. Show all posts

Tuesday 15 February 2022

निमंत्रण

ले हल्दियों से रंग, गुलमोहर संग,
लगी झूलने फिर, शाखें अमलतास की!

छूकर बदन, गुजरने लगी, शोख सी पवन,
घोलकर हवाओं में, इक सौंधी सी खूश्बू,
गीत कोई सुनाने लगी, भोर की पहली किरण,
झूमकर, थिरकने लगा वो गगन‌!
 
ले किरणों से रंग, गुलमोहर संग,
लुभाने लगी मन, शाखें अमलतास की!

कर गईं क्या ईशारा, ले गई मन ये हमारा,
उड़ेलकर इन नैनों में, पीत रंग प्रेम का,
रिझाने लगी, झूल कर शाखें अमलतास की,
बात कोई, कहने लगी हर पहर!

ले सरसों सा रंग, गुलमोहर संग,
गुन-गुनाने लगी, शाखें अमलतास की!

पट चुकी, फूलों से, हर तरफ, राह सूनी,
मखमली सेज जैसे, बिछाई हो उसने,
दे रही निमंत्रण, कि यहीं पर, रमा लो धूनी,
अब, वश में कहां, ये अधीर मन!

ले सपनों सा रंग, गुलमोहर संग,
बुलाए उधर, वो शाखें अमलतास की!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 9 December 2020

उम्मीद की किरण

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

उम्मीद थी वो, भुक-भुक रही जलती,
गहन रात की आगोश में,
अपनी ही जोश में,
पलती रही!
वो पहली किरण थी, धूप की!

उजाले ही उजाले, बिखरे  गगन पर,
इक दिवस की आगोश में,
नए इक जोश में,
हँसती रही,
वो उजली किरण सी, धूप की!

ये दीप, आस का, जला उम्मीद संग,
तप्त अगन की आगोश में,
तनिक ही होश में,
खिलती रही,
वो धुंधली किरण सी, धूप की!

नन्हीं सी इक लौ, बुझ न पाई रात भर,
वो ले आई, धूप सुबह की!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 12 December 2019

हर पात पर

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

ज्यूँ, बुलाता है वो, मन को टटोलकर,
यूँ सरेशाम, लौट आते हैं वो पंछी डोलकर,
चहकती है शाम, ज्यूँ बिखरे हों जाम,
बातें तमाम, उनके ही नाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

गुनगुनाते हैं पवन, फूलों से बोलकर,
कैसे मन को बांधे, क्यूँ ना रख दे खोलकर,
बिखेरे हैं लाल रंग, किरणों ने तमाम,
सिंदूरी राज, वो क्या आज लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

पात-पात रंगे गुलाल, कैसे डोलकर,
हर पात पर लिखी है, बात कुछ बोलकर,
ऐ शाम, कर दे जरा कुछ बातें आम,
क्यूँ चुपचाप, खत गुमनाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

आएंगे वो, पढ़ ना पाएंगे बोलकर,
कुछ कह भी न पाएंगे, वो मुँह खोलकर,
लबों से कह भी दे, तू किस्से तमाम,
बयाँ क्यूँ, आधी ही हकीकत, कर रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!

हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 16 August 2019

उजली किरण

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

फिर ना छलेगी, हमें ये अंधेरी सी रात,
चलेगी संग मेरे जब, कभी ये तारों की बारात,
अंधियारों में फूटेगी, आशा की इक लौ,
मन प्रांगण, जगमगाएंगे दिये सौ,
रौशन होगी, अन्तःकिरण!

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

जागेगा प्रभात, डूबेगी ये घनेरी रात,
चढ़ किरणों के रथ, चहकती आएगी प्रभात,
टूटेंगे दुःस्वप्न, अरमानों के सेज सजेंगे,
अंधेरे मन में, अन्तःज्योत जलेंगे, 
जगाएगी, इक रश्मि-किरण !

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

पल में ढ़लेगी, फिर न छलेगी रात,
बात सुहानी कोई कहानी, मुझसे कहेगी रात,
रैन सजेंगे, खोकर स्वप्न में नैन जगेंगें,
अंधियारों से, यूँ इक स्वप्न छीनेंगे,
मिलेगी स्वप्निल, प्रभाकिरण !

कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन! 

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 11 May 2018

भोर की पहली किरण

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

घुल गई है रंग जैसे बादलों में,
सिमट रही है चटक रंग किसी के आँचलों में,
विहँसती खिल रही ये सारी कलियाँ,
डाल पर डोलती हैं मगन ये तितलियाँ,
प्रखर शतदल हुए हैं अब मुखर,
झूमते ये पात-पात खोए हुए हैं परस्पर,
फिजाओं में ताजगी भर रही है पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

निखर उठी है ये धरा सादगी में,
मन को लग गए हैं पंख यूं ही आवारगी में,
चहकने लगी है जागकर ये पंछियाँ,
हवाओं में उड़ चली है न जाने ये कहाँ,
गुलजार होने लगी ये विरान राहें,
बेजार सा मन, अब भरने लगा है आहें,
फिर से चंचल होने लगा है ये पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

गूंज सी कोई उठी है विरानियों में,
गीत कोई गाने लगा है कहीं रानाईयों में,
संगीत लेकर आई ये राग बसंत,
इस विहाग का न आदि है न कोई अंत,
खुद ही बजने लगे हैं ढोल तासे,
मन मयूरा न जाने किस धुन पे नाचे,
रागमय हुआ है फिर से ये भवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

Tuesday 14 November 2017

मुख़्तसर सी कोई बात

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

सांझ की किरण, रोज ही छू लेती है मुझे,
देखती है झांक कर, उन परदों की सिलवटों से,
इशारों से यूँ ही, खींच लाती है बाहर मुझे,
सुरमई सी सांझ, ढ़ल जाती है फिर आँखों में मेरी!
सिंदूरी ख्वाब लिए, फिर सो जाती है रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

झांकती है सुबह, उन खिड़कियों से मुझे,
रंग वही सिंदूरी, जैसे सांझ मिली हो भोर से,
मींचती आँखों में, सिन्दूरी सा रंग घोल के,
रंगमई सी सुबह, बस जाती है फिर आँखों में मेरी!
दिन ढ़ले फिर, है उसी सपने की बात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

रंग वही सिंदूरी, लाकर देना तुम मुझे,
मांग सजाऊँगा उसकी, रंग लाकर किरणों से,
किरणपूंज सी, वो आएँगे जब बाहों में,
चंपई वो रंग, बिखरती जाएगी इन राहों में मेरी!
सिंदूरी सांझ तले, कट जाएगी ये रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

Monday 1 February 2016

जीवन तरंग

तरंगे उठती शहनाई बन,
हृदय की व्याकुल अंगड़ाई बन,
नव कलियों की तरूणाई बन,
चंचल चित की चतुराई बन,
भोर की प्रथम किरणों के संग।

तुम तरंगों पर चलकर आते,
नव प्रभात बन नवजीवन लाते,
हृदय मध्य मृदंग बज उठते,
जीवन स्वप्न सम विस्तृत हो जाते,
धवल किरणों की नवराग सुनाते।

तुम संगी एकाकीपन के,
तुम राग विहाग सुंदर जीवन के,
तरुणाई की नव अंगड़ाई तुम,
तुम प्रहरी मानस पटल के,
प्रखर तेजस्व जीवन अनुराग तुम ।

Saturday 26 December 2015

किरणों ने खोले हैं घूंघट


किरणों ने फिर खोले है घूंघट,
                   तिमिर तिरोहित बादलों के,
कलुषित रजनी हुआ तिरोहित,
                   संग ऊर्जामयी उजालों के।

अनुराग रंजित प्रबल रवि ने,
                    छेड़ी फिर सप्तसुरी रागिणी,
दूर हुआ अवसाद प्राणों का,
                    पुलकित हुई रंजित मन यामिनी।

ज्योतिर्मय हुआ ज्योतिहीन जन,
                    मिला विश्व को जन-लोचन तारा,
अवसाद मिटे हुआ जड़ता विलीन,
                    मिला मानवता को नव-जीवन धारा।