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Friday 16 September 2016

अधलिखी

अधलिखी ही रह गई, वो कहानी इस जनम भी ....

सायों की तरह गुम हुए हैं शब्द सारे,
रिक्त हुए है शब्द कोष के फरफराते पन्ने भी,
भावप्रवणता खो गए हैं उन आत्मीय शब्दों के कही,
कहानी रह गई एक अधलिखी अनकही सी....

संग जीने की चाह मन में ही रही दबी,
चुनर प्यार का ओढ़ने को, है वो अब भी तरसती,
लिए जन्म कितने, बन न सका वो घरौंदा ही,
अधूरी चाह मन में लिए, वो मरेंगे इस जनम भी ....

जी रहे होकर विवश, वो शापित सा जीवन,
न जाने लेकर जन्म कितने, वो जिएंगे इस तरह ही,
क्या वादे अधूरे ही रहेंगे, अगले जनम भी?
अनकही सी वो कहानी, रह गई है अधलिखी सी....

विलख रहा हरपल यह सोचकर मन,
विधाता ने रची विधि की है यह विधान कैसी,
अधलिखी ही रही थी, वो उस जनम भी,
वो कहानी, अधलिखी ही रह गई इस जनम भी ....

Monday 21 March 2016

विरहन की होली

फिजाओं में हर तरफ धूल सी उड़ती गुलाल,
पर साजन बिन रंगहीन चुनर उस गोरी के।

रास न आई उसको रंग होली की,
मुरझाई ज्यों पतझड़ में डाल़ बिन पत्तों की,
रंगीन अबीर गुलाल लगते फीकी सी,
टूटे हृदय में चुभते शूल सी ये रंग होली की।

वादियों में हर तरफ रंगो की रंगीली बरसात,
लेकिन साजन बिन कोरी चुनर उस विरहन के।

कोहबर में बैठी वो मुरझाई लता सी,
आँसुओं से खेलती वो होली आहत सी,
बाहर कोलाहल अन्दर वो चुप चुप सी,
रंगों के इस मौसम में वो कैसी गुमसुम सी।

कह दे कोई निष्ठुर साजन से जाकर,
बेरंग गोरी उदास बैठी विरहन सी बनकर,
दुनियाँ छोटी सी उसकी लगती उजाड़ साजन बिन,
धानी चुनर रंग लेती वो भी, गर जाती अपने साजन से मिल।