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Sunday 6 December 2020

जीवट

यह मानव, जीवट बड़ा!
गिरता, हर-बार होता, उठ खड़ा,
जख्म, कितना भी हो हरा!
विघ्न, बाधाओं से, वो ना डरा,
समय से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

या विरुद्ध, बहे ये धारा!
हो, पवन विरुद्ध, दूर हो किनारा,
ना अनुकूल, कोई ईशारा!
प्रतिकूल, तूफानों से, वो लड़ा,
डरा कभी ना, मानव,
जीवट बड़ा!

आईं-गईं, प्रलय कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
इक संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
श्रृष्टि से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

युगों-युगों से, रहा खड़ा!
वो पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

जंग अभी, है यह जारी!
विपदाओं पर, है यह मानव भारी,
इक नए कूच की, है तैयारी,
अब, ब्रम्हांड विजय की है बारी,
ठहरा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 21 September 2018

ब्रम्ह और मानव

सुना है! ब्रम्ह नें, रचकर रचाया ये रचना....
खुद हाथों से अपने,
ब्रम्हाण्ड को देकर विस्तार,
रचकर रूप कई,
गढ़ कर विविध आकार,
किया है साकार उसने कोई सपना...

सुना हैं! उन सपनों के ही इक रूप हैं हम....
अंश उसी का सबमें,
रंग विविध से दिए है उसने,
भरकर भाव कई,
देकर मन रुपी संसार,
किया है हृदय में ममता का श्रृंगार....

सुना है! ब्रम्हलोक गए वे सब कुछ देकर...
दे कर विशाल सपने,
एहसास उपज कर मानव में,
इच्छाएं दे कई,
किए बिन सोच विचार,
सृष्टि पर सौंप दिया था अधिकार....

सुना है! अब पश्चाताप कर रहा वो ब्रम्ह...
श्रेष्ठ ज्ञान दिया जिसे,
योनियों में उत्तम रचा जिसे,
भूला राह वही,
कपट क्लेश व्यभिचार,
सृष्टि की संहार पर तुला है मानव...

सुना है! टूट चुकी है अब ब्रम्ह की तन्द्रा...
रूठ चुका है वो सबसे,
त्रिनेत्र खोल दिए है शिव ने,
प्रलय न हो कहीं!
प्रकृति में है हाहाकार,
हो न हो, है विनाश का ये हुंकार...

सुना है! अब भी नासमझ बना है मानव...

Monday 24 July 2017

आसक्ति

आसक्त होकर निहारता हूँ मैं वो खुला सा आकाश!

अनंत सीमाओं में स्वयं बंधी,
अपनी ही अभिलाषाओं में रमी,
पल-पल रूप अनंत बदलती,
कभी निराशाओं के काले घनघोर घन,
सन्नाटों में कभी घन की आहट,
वायु सा कभी प्रतिपल तेज चरण,
कभी साए सी चुपचाप, प्रतिविम्ब सी मौन....

आसक्त होकर निहारता हूँ मैं वो खुला सा आकाश!

विशाल भुजपाश में जकड़ी,
व्याकुल मन सी दौड़ती वो हिरणी,
कभी ब्रम्हांड में हुंकार भरती,
वेदनाओं मे क्रंदन करती वो दामिणी,
कभी आँसूओं में करती क्रंदन,
या कभी सन्नाटों के क्षण, आँसुओं के मौन...

आसक्त होकर फिर निहारता हूँ मैं वो खुला आकाश!
जहाँ....
मुक्त पंख लिए नभ में उड़ते वे उन्मुक्त पंछी,
मानो क्षण भर में पाना चाहते हो वो पूरा आकाश...