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Wednesday 19 August 2020

सहिष्णुता

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर,
रक्त है तो, उबल भी सकता है ये!

ओढ़ कर चादर, हमनें झेले हैं खंजर,
समृद्ध संस्कृति और विरासत पर,
फेर लूँ, मैं कैसे नजर!
बर्बर, कातिल निगाहें देखकर!
विलखता विरासत छोड़कर!
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर!

खोखली, धर्म-निरपेक्षता के नाम पर,
वे हँसते रहे, राम के ही नाम पर,
पी लूँ, कैसे वो जहर!
सह जाऊँ कैसे, उनके कहर,
राम की, इस संस्कृति पर!
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर!

गढ़ो ना यूँ, असहिष्णुता की परिभाषा,
ना भरो धर्मनिरपेक्षता में निराशा,
जागने दो, एक आशा,
न आँच आने दो, सम्मान पर,
संस्कृति के, अभिमान पर,
रक्त है, मेरे भी नसों में,
उबल जाता है ये!

रुक नही सकता, सहिष्णुता के नाम पर,
रक्त है तो, उबल भी सकता है ये!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 3 April 2018

ढ़हती मर्यादाएँ

ढ़हती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

चलते रहे दो समानान्तर पटरियों पर,
इन्सानी कृत्य और उनके विचार,
लुटती रही अनमोल विरासतें और धरोहर,
सभ्यताओं पर हुए जानलेवा प्रहार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

कथनी करनी हो रहे विमुख परस्पर,
वाचसा कर्मणा के मध्य ये अन्तर,
उच्च मानदंडों का हो रहा खोखला प्रचार,
टूटती रही मान्यताओं की ये मीनार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

करते रहे वो मानदण्डों का उल्लंघन,
भूल गए है छोटे-बड़ों का अन्तर,
न रिश्तों की है गरिमा, न रहा लोकलाज,
मर्यादा का आँचल होता रहा शर्मसार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

कर्म-रहित, दिशाविहीन सी ये धाराएँ,
कहीं टूटती बिखरती ये आशाएँ,
काल के गर्त मे समाते मूल्यवान धरोहर,
धूलधुसरित होते रहे मन के सुविचार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!