Showing posts with label संगतराश. Show all posts
Showing posts with label संगतराश. Show all posts

Saturday 12 February 2022

आवाज

कल, कहीं, किस्सों में मिलूंगा,
किधर, न जाने, कितने हिस्सों में बटूंगा,
आज, पुरकशिश, इक आवाज़ हूँ,
सुन लो, धड़कता साज हूँ!

भटक कर रह गई, कहीं, कितनी आवाजें,
सुनता कौन, उनकी गुजारिशें,
बेअसर, लौट आईं कभी, उभरती गूंज बनकर,
कभी, दब कर रह गईं, इक आह बनकर,
पिरोए, एहसास कितने, आज हूँ,
सुन लो, तड़पता साज हूँ!

गूंज वो ही, रखे हैं, चंद शब्दों में पिरोकर,
उभर आते, गीतों में वो अक्सर,
वो ही, बन चले हैं, गुजरते वक्त के हमसफर,
सांझ जो, ढ़ल न पाए, इक रात बनकर,
उस, ठहरे सांझ का अल्फ़ाज़ हूँ,
सुन लो, बिखरता साज हूँ!

जाओगे जिधर, बुलाएंगी, वो ही सदाएं,
अक्सर, राह वो ही, टोक जाएं,
कस्तियां, मुड़ ही जाएंगी, किनारा हो जिधर, 
ये आवाज, कभी कर ही जाएंगी असर,
लिखूं शिलाओं पर, संगतराश हूँ,
सुन लो, बहकता साज हूँ!

इस धार में, बह, जाऊं किधर,
समय के मझधार में, रह, जाऊं किधर,
अनसुना अब तलक, वो राज हूँ,
सुन लो, धड़कता साज हूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 13 December 2020

निराधार आकाश

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

देशहित से परे, न आंदोलन कोई,
देशहित से बड़ा, होता नहीं निर्णय कोई,
देशहित से परे, कहाँ संसार मेरा,
देशहित ही रहा संस्कार मेरा,
पर, डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

प्रतिनिधि चुना, खुद मैंने हाथों से,
प्रभावित कितना था मैं, उनकी बातों से!
इक दीप सा था, वो प्रकाश मेरा,
खड़ा सामने था, इक सवेरा,
पर, डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

अंधेरों में, रुक चुका है ये कारवाँ,
भरोसे के काबिल, शायद, न कोई यहाँ!
रिक्तियों से भरा, अंकपाश मेरा,
निःपुष्प सा, ये पलाश मेरा,
डिगने लगा है, अब विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

चालें, अपनी ही, नित चलता रहा,
वो फरेबी, इक चक्रव्यूह ही रचता रहा,
कल तक, वो था संगतराश मेरा,
ले न आए वही, विनाश मेरा!
ऐसा डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

सर्वोपरि हो, देश हित, फिर हैं हम,
पर उसी नें इस देश में, फैलाया है भ्रम,
इक अंधकार में है, आकाश मेरा,
निराधार ही था, विश्वास मेरा!
ऐसा डिग चला अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 9 December 2017

संगतराश

जिंदादिल हूँ, कारीगर हूँ, हूँ मैं इक संगतराश...
तराशता हूँ शब्दों की छेनी से दिल,
बातों की वेणी में उलझाता हूं ये महफिल,
कर लेना गौर, न करना यूँ आनाकानी,
उड़ाना ना तुम यूँ मेरा उपहास,
संगतराश हूँ अलबेला.....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
प्रेम की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

करता हूँ कुछ मनमानी, कुछ थोड़ा सा हास... 
गढ़ जाता हूँ बिंदी उन सूने माथों पे,
सजाता हूँ लरजते से होठों पे कोई तिल,
शरमाता हूँ, यूँ हीं करके कोई नादानी,
ना करना तुम यूँ मेरा परिहास,
मैं संगतराश हूँ अकेला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
हास की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।

तन्हाई में ये मेरा दिल, संजोता है सपने खास....
कल्पना आँखों में, उड़ते रंग गुलाल,
साकार सी मूरत, मन में उभरता मलाल,
वही शक्ल, वही सूरत जानी पहचानी,
यूँ ही फिर उड़ाती मेरा उपहास,
मैं संगतराश हूँ मतवाला....
आओ, बैठो पल दो पल को तुम मेरे पास,
नैनों की छेनी से खुट-खुट, थोड़ा तुमको भी दूँ तराश।