Saturday 19 December 2015

वादों का क्या ?

कहते है, वादों का क्या?
वादे अक्सर टूट जाया करते है पर कोशिशें कामयाब होती है।

लगाव हो हमें जिनसे, उनके टूटने पर तो
पीड़ा भी असीम होती है, कराह भी अथाह,
वादा तो है, प्रष्फुटित विवेक की अन्तरिम प्रवाह,
मानवीय संवेदनाओं की भावपूर्ण चेतना का प्रष्फुटन,
ये जगा जाते है भावनात्मक उम्मीद,
जहां जिन्दगियों के परिणाम होते है प्रभावित,

हर वो शै जो टूटने वाली है,
स्थायित्व का है अभाव उनमें,
जैसे ,,,नींद टूट जाती है, सपने टूट जाया करते हैं,
दिल टूट जाया करते है, शीशा टूट जाता हैं,
और तो और रिकार्ड टूट जाते हैं,
स्थाई नही है ये जरा भी, न है इनका मलाल इन्हें।

फिर वादा निभाने की हमारी निष्ठा
कहां और क्युं हो जाती है विलीन,
मानवीय भावनाओं के उपर भी क्या कुछ और हैं
जो कर जाती हैं हमें विवश वादे तोड़ने को
जिन्दगियों से खिलवाड़ करने को.......

क्यूँ न हम वादा निभाने की कोशिश करें,
दिलों को टूटने से रोके जिन्दगियों को निखार दें
आत्मा पर और बोझ ना पड़े
सुकूँ और करार मिले,,,,,,

Friday 18 December 2015

भरम

मन को भरम ये हो चला था कि,
पल्लवी पुनः मुखरित हुआ यहीं कहीं,
मानो अधर सेे फूट पड़े पल्लवित छंद,
प्राणों से उठने लगे मधुर आवर्त मंद यूंहीं ।

पर भरम मृदु टूट गया बन स्वर्ण स्वप्न,
अनुभूति की मधु आभा गई विखर हो नग्न,
अब पल्लवी तो बन चुकी पूर्ण शाखा विशाल,
हैं जिनके खुद की अलग दिशाएं और अतृप्त चाह,
खुद को पूजित होने चाह लिए

सचमुच तुम करो उत्पन्न आकांक्षाएं,
पल्लवित प्रफुल्ल आशीष प्रेरणा-पन्य ,
खोलो प्रत्यक्ष  छवि में ब्रजेश,
अशेष मृत्तिका-प्रणयि धूसरित  वेश,
पुरूषोत्तम प्रफुल्लित देता आशीष।

फूल...थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा


फूल...थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा,
जीवन जीने की
अविस्मरणीय सीख दे जाते हैं,
भले ही जियें एक ही दिन,
पर कहा वे घबराते हैं,
फूल हँसते ही रहते हैं,
खिला सब उनको पाते हैं,
जीते है बस चन्द दिन,
पर बात बड़ी कह जाते हैं,

रंग कब बिगड़ सका उनका,
रंग लाते दिखलाते है,
मस्त हैं सदा बने रहते,
उन्हें मुसुकाते पाते हैं,
भले ही जियें एक ही दिन,
पर कहा वे घबराते हैं,
फूल हँसते ही रहते हैं,
खिला सब उनको पाते हैं ।

मन पाए न विश्राम क्यूँ?


मन पाए न विश्राम क्युँ?
चातक बन चाहे उड़ जाऊँ,
खुले गगन की सैर करूँ,
आसमान को बाहों मे भर लाऊं

मन की चाह अति निराली,
गति इसकी लांघे व्योम,
बात कहे वो अजब अनोेखी,
पर विवेक करता इसके विलोम,

मन की बात सुनुं तो,
जग कहता, अपने मन की करता है
दूसरों की तो सुनता ही नही,
बावरा है यूं ही डग भरता रहता है

इन्सानों के मन आपस मे कब मिलते है,
यहां तो मन पे पहरे हैं
मन की निराली बातें रह जाती,
मन मे ही व्यथित, कुचलित,
मन की तो भावनाएं ही जग में
कही जाती "कुत्सित"

मन तू कर विश्राम जरा,
अपनी पीड़ा को दे आराम जरा,
जग की वर्जनाओं का तू रख ख्याल,
तुझे भी तो जीना है इसी कोलाहल में,
पूरी संजीदगी के साथ,

अपनी संवेदनाओं को ना तु और जगा,
मन कर तू विश्राम जरा, विश्राम जरा!

Thursday 17 December 2015

मेरी प्रेरणा-मेरी जीवन संगिनी

मेरी अंत:मानस से दूर,
एक शहर अन्जाना सा,
पता नहीं था मुझे, जहां बसती है
मेरे जीवन को उद्वेलित करनेवाली,
मेरी जीवन संगिनी, मेरी प्रेरणा।

वही शहर जहां ईश्वरीय कृपा हुई,
मैं चयन परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ
और जीवन में सफलता की नींव पड़ी,
शायद मेरी प्रेरणा ने याचना की थी इसकी,
वो अनजाना, पर प्रभाव तो तब भी था।

पहली बार जब उसकी झलक देखी,
मन नें अकस्मात् कुछ भावनाएं जगी,
अपनत्व-सानिध्य का एहसास हुआ,
और हो भी क्युँ न, बड़े भाव से उसने,
परोसा सा मनचाहा लाजवाब व्यंजन।

जीवन की जैसे सीमा रेखा खिच गई
तमाम शिखर चूमता गया,
अपनी सारी चिन्ताओं से विमुक्त हो
मै लांघता गया समय की दहलीज,
वो मेरे कुल की चहेती जो बन गई थी।

दो दो पुत्रियों को नवाजा उसने,
स्वयं मे महसूस संपूर्ण कमियों को
पुत्रियों की उपलब्धियों से संजोया,
जीवन की उत्कंठाओं मे बस एक।

खुद को सर्वस्व निछावर कर,
जीवन साथी के आधार को मजबूत बनाना
उन्नति कुल की है जिसकी साधना,
वही है मेरी प्रेरना, मेरी जीवन संगिनी।

मेरी प्रेरणा कृतज्ञ हूँ मैं तुम्हारा ,,,

शख्शियत

शख्शियत.......

दरख्तों सी होनी चाहिए शख्शियत हमारी,
जड़े इतनी पैबंद के
हवा के मामुली झौंके हिला न सके इन्हें,
शाख इतने विशाल के,
दुनियां समा जाए इनकी आगोश में,
छाए इतने घने के,
पथिक क्षण भर विश्राम को मचल उठे
जीवन इतना महान के,
धरा झूम उठे, आसमां भी नाज करे,
मृ्त्यु इतनी शानदार के,
मानस रुपी घरों में चौखटों की तरह अंकित हो जाए

काश! शख्शियत दरख्तों सी बन पाती हमारी...
सूखे ठूंठ दरख्त नही,
बरगद सा विशाल दरख्त,,,,,,,,

लगाव.....!

आज मेरी जिन्दगी नें कहा,
"चंद फासला जरूर रखिए हर रिश्ते के दरमियान"
क्योंकि
नहीं भूलती दो चीज़ें चाहे जितना भुलाओ !
एक "घाव"और दूसरा "लगाव"...!

मुझसे रहा न गया!
मैंने कहा,

अब तो फासले ही हैं,
घाव जो लगे हैं लगाव को
रिश्ते भी दम तोड़ने लगे है,,,,,,,

लगाव अगर गहरा हो तो दिखनी भी चाहिए,
महसूस भी होनी चाहिए इसकी गर्माहट,,
वर्ना लगाव तो हमें हर चीज से है,
जो हमारी जिन्दा होने या न होने की शर्त नही।

Wednesday 16 December 2015

वक्त की कमी...

वक्त........
आज मैने जीवन से कहा,
थोड़ी देर रुक जा,
बैठ मेरे पहलू में,
दो बाते करेंगे,
कुछ अपनी कहेंगे, कुछ तुम्हारी सुनेंगे,

उसने कहा, वक्त नही है मेरे पास,
करने है मुझे इनसे भी बड़े काम,
तुम्हारी फिर कभी सुन लेंगे।

इच्छाएं जो मन में थी,
दब गई,
समा गई निराशा की गहरी खाई में,

क्युंकि
गुजरा हुआ पल कभी आता ही नही,
ख्वाहिशें जो आज पनपी है,
शायद कल पनपे ही नहीं
क्युंकि वक्त ही तो नही अपने पास....

विवशताएँ

मन विवश क्युं?
भावनाएं बेकल क्युं?
प्यार कुंठित क्युं?

क्युं है ये दायरे,
क्युं हैं ये पहरे,
क्युं है ये विवशता,

क्या प्यार के अहसास को
जन्म पाने की भी उम्र तय होती है?
विवशताओं के दायरों मे पिरोए संबंध
क्या जन्म दे पाते हैं प्यार को?
क्या इनमे भावनाओं को जगाने की
प्रचूर ऊष्मा होती है?

शायद नहीं....!

जीवन के सुदूर पलों का प्यार,
शायद बंदिशों मे दब कर 
दम तोड़ देती है या फिर
दुनिया इन्हें नाजायज ठहरा देती है।

क्या प्यार कभी नाजायज हो सकता है?

जीवन एक अहसास

जीवन एक अहसास,
कहीं खुशी से लबरेज लम्हें,
तो कही दुख के अंतहीन पल,
कभी चैन के दो पल,
तो कही विवश करती जरूरतें।

इन्ही विविधताओं के बीच
जीवन जीने की बाध्यता.....!

कुछ भी तो नही है हमारे वश मे,
फिर भी सभी कुछ वश में कर लेने की, 
अंतहीन चाह,
समस्त मानवीय संवेदनाओं पर
दंभ और अभिमान का दंश!

करुणा, विनय, प्यार, अहसास,
ये सभी किताबों में अंकित
मृत अक्षरों से दिखते है.......!

जीवन को जीवंत बनाने का अहसास,
न जाने किधर गुम है
शायद इन सिक्को की झंकार में,
या फिर,
हमारी सामंती मंशाओं के बीच
पिस सी गई है?