Wednesday 10 August 2016

उभरते जख्म

शब्दों के सैलाब उमरते हैं अब कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते है ये शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

अंजान राहों पे शब्दों ने बिखेरे थे ख्वाबों को,
हसरतों को पिरोया था इस मन ने शब्दों की सिलवटों से,
एहसास सिल चुके थे शब्दों की बुनावट से,
शब्दों को तब सहलाया था हमने कलम की नोक से।

ठोकर कहीं तभी लगी इक पत्थर की नोक से,
करवटें बदल ली उस एहसास ने शब्दो की चिलमनों से,
जज्बात बिखर चुके थे शब्दों की बुनावट से,
कुचले गए तब मायने शब्दों के इस कलम की नोक से।

अंजान राहों पर भटक चले थे कलम की नींव ये,
शब्दो को बेरहमी से तब कुचला था कलम की नींव ने,
मायने शब्दों के बदल चुके बस एक ठोकर से,
जज्बात नहीं सैलाब उमरते है अब कलम की नोक से।

शब्दों के सैलाब उमरते गए कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते रहे शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

Tuesday 9 August 2016

नेह ये कैसा?

नेह ये कैसा?

मासूम सा वो जिद्दी पतंगा,
कोमल पंख लिए लौ पर उड़ता फिरता,
नेह दिल में लिए दिए से कहता,
पनाह मे अपनी ले ले, जीवन के कुछ पल देता जा......

निरंकुश वो दिया है कैसा?
कहता पतंगे से, तू जिद क्युँ करता,
जीवन नहीं, यहाँ मौत है मिलता,
जीवन तू अपना दे दे, जीवन के कुछ पल लेता जा.....

धुन का पक्का पर वो पतंगा,
रंग सुनहरे अपनी निर्दयी दिए को देता,
प्रेम में ही जीता, प्रेम में ही मरता,
आहूति जीवन की देकर, जीवन के कुछ पल जीता....

दिया रोता तब अपने किए पर,
भभककर जल उठता अब रो रोकर,
बुझ जाता पतंगे संग जल जलकर,
कारिख पतंगो को देकर, निशानी नेह की उनको देता...

नेह ये कैसा?

Monday 8 August 2016

कुछ लम्हे मेरी शब्दों के संग

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.........

आँखें मिली जो आपसे शब्दों के जैसे नींद उड़ गए,
शब्दों को जैसे सुर्खाब के पर लग गए,
सुरूर कुछ छाया ऐसा शब्दों के जेहन पर,
कोरे कागज पर जज्बातों के ये प्रहर से लिख गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

नैनों मे खोए शब्द कभी हँस परे खिलखिलाकर,
कुछ के जज्बात बूँदों में बह निकले,
कुछ शब्दों के वाणी रूँधकर लड़खड़ाए,
कोरे कागज पर मिश्रित से कई तस्वीर उभर गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

शुरू हुई फिर शब्दों में नोंक-झोंक के सिलसिले,
कुछ कहते, वो आए थे मुझसे मिलने गले,
कुछ कहते मेरी चाहत में थे उनके दामन गीले,
कोरे कागज पर शब्दों में अंतहीन जंग से छिड़ गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

अब उन्हीं लम्हों को ढूंढ़ते मेरे शब्द पन्नों पर,
अनकहे जज्बात कई लिख डाले मैंने इन पन्नों पर,
मेरे शब्दों के स्वर और भी मुखर हो गए,
कोरे कागज पर इन्तजार के वो लम्हे बिखर से गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

Saturday 6 August 2016

किसे कह दूँ

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

दुरूह सबकी अपनी-अपनी व्यथा,
मैं शब्दों मे व्यथा का बोझ भरूँ फिर कैसे?
मुस्काते होठ, चमकीली आँखों मे मैं इनको भर लेता,
व्यंगों की चटकीली रंगों से कहता व्यथा की कथा!

व्यथा का आभाष तनिक न उनको,
व्यथा के शब्दों से बींधूँ कैसे उनकी तन को,
हृदय के कोष्ठों, पलकों की चिलमन मे इनको भर लेता,
एकाकी पलों में खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

कोई उस ओर नहीं

कोई अब उस ओर नहीं,
इन्तजार की छोटी भी कोई डोर नहीं,
जेठ दुपहरी नाचे अब मोर नहीं,
विरह के पल काटूँ कैसे?
इस पल का कोई छोर नहीं..!

डसती ये विरहा की वेला,
संजोए अधूरे सपने कोई उस ओर तो होता?
इन्तजार के उन धागों सें मैं बंध जाता,
सपने अधूरे देखूँ कैसे?
आँखो में सपनों के दौर नहीं..!

बूँदें सावन की सूखी-सूखी सी अब,
रंग मेंहदी की लगती फीकी-फीकी सी अब,
कलाई की चूरी करती अब शोर नहीं,
दिल ही दिल इठलाऊँ कैसे?
बेकरार कोई अब उस ओर नहीं!

फिर क्युँ ये मन जाता उस ओर?
अधूरे सपनों संग क्युँ बांधता जीवन की डोर?
मयुरा मन का क्युँ नाचता होकर विभोर?
मन को समझाऊँ कैसे? 
कोई रहता अब उस ओर नहीं..!

Friday 5 August 2016

बढ़ती रहे जिन्दगी

चल, बढ़ बहती धार सा, ताकि बढ़ती रहे ये जिन्दगी.....

जिन्दगी की कहानी, ये धार नदी की बलखाती,
करती हवाओं से बातें, शीतल उन्हें बनाती,
जज्बा लिए जीवन का, संघर्ष बाधाओं से वो करती।

नाव जर्जर सी लड़खड़ाती, इक लकड़ी से बस बनी,
हर पल लहरों से टकराती, राह वो चलती रही,
जर्जर शरीर है मगर, जज्बा जीवन का अब भी वही!

लौ आश की उस तैरती दीप मे भी छुुपी,
भीगी सी वो बाती, जल जल जिए वो जिन्दगी,
उस जलन की ताप में ही है छुपी ये जिन्दगी।

हर पल मचलती बेताब लहरों के दिल में भी,
पल आश का छुपा है कहीं,
एक न एक पल तो विश्राम पाएगा वो कहीं।

पर, ठहरा वो लहर जो एक पल भी कहीं,
दम ठंढ़ी हवाओं के घुट जाएंगे वहीं,
रुक जाएगा वो प्रहर रुक जाएगी ये जिन्दगी।

चल, बढ़ बहती धार सा, ताकि बढ़ती रहे ये जिन्दगी.....

Tuesday 2 August 2016

मेहदी लगे हाथ

अंकुरा है फिर स्नेह, आज मेंहदी लगी उन हाथों में....

खुश हो रहा मन.....
उपजी है नेह की फसल मेंहदी संग उनकी यादों में,
मलय के झौंकों में आज मेहदी की है खुश्बु,
रंग बस मेंहदी का ही अब इन आँखों मे,
गहराया है रंग मेंहदी का खिलकर उनकी हाथों में...

कहते हैं वो.....,
रंग मेहदी का गहराता है स्नेहिल आँखों से,
मेंहदी हँस पड़ती है खुलकर तब इन हाथों में,
बोल पड़ते हैं ये रंग स्नेहिल भाषा तब यौवन के,
रंग जाता है यह मन बोझिल से तन मन के....,

मेंहदी यह कैसी...!
खुद पिस जाती है यह औरों के सुख में,
आहूत कर तन को रंग भरती औरों के आंगन में,
मिटकर सिखलाती है गुण जीने का जीवन में,
लहु हैं यह मेंहदी के, जो खिल उठते हैं हाथों में.....

नेह उस मेंहदी का....
उनकी नेह लगी है संग मेहदी के शायद,
गुण मेंहदी के सारे सीखे हैं उसने इसकी संगत में,
हाथों के छालों को ढ़का है उसने मेंहदी से,
खुशी देखने को मेरी हँसते है वो शायद संग मेंहदी के....

अंकुरा है फिर स्नेह, आज मेंहदी लगी उन हाथों में....