Thursday 6 October 2016

दस्तक देते पल

दस्तक देते हैं कुछ पल बीते वक्त के तहखाने से ....

ऐ वक्त के बहते हुए अनमस्क से साये,
लघु विराम दे तू अपनी यात्रा को,
देख जरा छीना है कैसे तूने उन लम्हों को,
सिमटी हैं उन लम्हों में ही मेरे जीवन की यादें,
तू लेकर आ यादों के वो घनेरे से छाये,
तेरी तहखानों में कैद हुए वो पल, मुझको लौटा दे.....

ऐ वक्त के बहते हुए अनवरत से धारे,
खोई तेरी धारा में, चपलता यौवन की मेरी,
बदली है काया, बदली सी सूरत है मेरी,
मायने बदल गए हैं रिश्तों के इन राहों में तेरी,
छूट गई राहों में कितने ही साँसों की डोरी,
दस्तक देते उन लम्हातों के पल, मुझको लौटा दे.....

झाँक रहे है वो कुछ पल बीते वक्त के तहखाने से ....

दोरसा मौसम

वो बोली, रखना खयाल अपना दोरसा है ये मौसम....

ठंढी बयार लेकर आई थी जब अगहन,
पहली बार तभी काँपा था उस दुल्हन का मन,
होकर व्याकुल फिर समझाया था उसने,
दोरसा है ये मौसम, खयाल होंगे तुम्हे रखने,
संभल कर रहना, इक तुम ही हो इस मन में........

बदलते मौसम से चिंतित थी वो दुल्हन,
मन ही मन सोचती बड़ा अल्हड़ है मेरा साजन,
उपर से अगहन पूष का दोरसा ये मौसम,
आशंकओं से पहली बार कांपा था उसका मन,
दोरसे मौसम में तब घबराई थी वो नव दुल्हन......

युग बीते, बीते कितने ही दोरसे मौसम,
चिन्तित होती वो अब भी, जब आता दोरसा मौसम,
बेफिक्री साजन की बढ़ाती उसकी धड़कन,
मन ही मन कहती, आता ही है कयूँ दोरसा मौसम,
दोरसे मौसम में, बन चुकी थी वो पूरी दुल्हन......

रखती है वो ख्याल मेरा, जब आता है दोरसा मौसम.....

Tuesday 4 October 2016

प्यार भरी कोई बात

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

जागे हैं अनदेखे से सपने....ये खयालात हैं कैसे,
अनछुए से मेरे धड़कन.........पर ये एहसास हैं कैसे,
अन्जाना सा चितवन...ये तिलिस्मात हैं कैसे,
बहकते कदम हैं किस ओर, ये अंजान है कैसे?

जीवन के.....इस अंजाने से डगर पर,
उठते है ज्वर ....झंझावातों के.........किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश करता सपनों में कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख.. सपनों की ...होती है बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती है फिर वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

अंजानी उस बुत से.....होती हैं फिर बातें,
बसती है छोटी सी दुनियाँ...फलक पे अंजाने से,
घुलती है साँसों में....खुश्बु इक हौले से,
बज उठते हैं फिर तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले कौन इसे, रोके ...इसे कोई कैसे,
एहसासों...की है ये बारात, अरमाँ हैं बहके से,
रिमझिम सी उस पर ये बरसात, हौले से,
मचले से हैं ये जज्बात, समझाएँ इसे फिर कैसे?

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

Monday 3 October 2016

रुखसत

रुखसत हुआ वो जहान से यूँ पलट कर,
अनगिनत सवालों के हल, अथूरे यूँ ही रख कर,
हालातों के भँवर में फसा वो यूँ सिमट कर।

दीप था वो बुझ गया जो फफक कर,
थी खबर उसको कहाँ वो बुझेगा यूँ ही जलकर,
रास्तो के अंधेरो मे मिटेगा यूँ धधक कर।

चौराहे पर बिलखती संगिनी छोड़ कर,
बीच मझधार में नाव जीवन की यूँ ही छोड़ कर,
रिश्तों के मोह से चला वो यूँ मुँह मोड़ कर।

न जाने किधर वो चला जहाँ को छोड़ कर
क्या खुश है वो भी मोह के बंधनों को तोड़कर?
चाहतों के हमसफर को अकेला छोड़ कर?

रुखसत हुई हैं साँसे उसकी यूँ ही टूटकर,
रुखसत हुआ है अलग भीड़ से वो वजूद रख कर,
संसार की रंगीनियों को अलविदा कह कर।

(आज, एक दोस्त की असमय आकस्मिक निधन पर)

Sunday 2 October 2016

हल्की सी हवा

हल्की सी वो हवा थी, जो हौले से तन को छू गई....

वादी वो हरी-हरी खिली-खिली सी,
झौंके हवाओं के हल्के से, मदहोश कर गई,
गुनगुनाने लगा है मन उन वादियों में कहीं,
चल पड़े हैं बहके कदम मेरे, दिशाहीन से कहीं....

हल्की सी वो सिहरन थी, जो हौले से तन को छू गई....

शायद कल्पनाओं की है ये इक लरी,
शब्द मेरे ही गीतों के, वादी में गुंज रही हैं कहीं,
मुस्कुराने लगा है मन, हवा ये कैसी चली,
थिरक रहे हैं रोम-रोम, धुन छिड़ी है ये कौन सी.....

हल्की सी वो चुभन थी, जो हौले से तन को छू गई....

सच कर लूँ मैं भरम मन के वही,
दोहरा लूँ फिर से वही अनुभव सिहरन भरी,
बह जाये वो पवन, इन्ही वादियों में कहीं,
दिशाहीन बहक लूँ मैं, सुन लूँ इक संगीत नई......

हल्की सी वो अगन थी, जो हौले से तन को छू गई....

Saturday 1 October 2016

चिलमन

कह दे कोई चिलमनों से, जिन्दगी न छीने किसी से...

कभी  तरसाती  हैं बहुत, ये चिलमन के साये,
दीदार धुंधली सी कर पाती है जब ये निगाहें,
हैं चिलमनों के पार निखरी सी रौशन फिजाएँ,
चिलमनों के इस तरफ,  छाई है काली घटाएँ।

जल रहा है दीप कोई चिलमनों के उस तरफ,
गीत कोई बज रही है चिलमनों के उस तरफ,
शाम सुहानी ढल रही चिलमनों के उस तरफ,
धुंधली सी है विरानी,  चिलमनों के इस तरफ।

बरपाए है सदियों, जुल्म कितने चिलमनों ने,
चाँदनी थी गगन पे, दीदार की न हो किसी ने,
काटे हैं पल इस  तरह,  गुजारे हैं जैसे महीने,
जीवन के पलों से खुशी छीन ली हो किसी ने।

कह दे कोई चिलमनों से, जिन्दगी न छीने किसी से...

पलकों की छाँव

छाँव उन्हीं पलकों के, दिल ढूंढता है रह रहकर....

याद आता हैं वो पहर, जब मिली थी वो नजर,
खामोशी समेटे हुए, हँस पड़ी थी वो नजर,
चिलचिलाती धूप में, छाँव दे गई थी वो नजर,
वो पलकें थी झुकी और हम हुए थे बेखबर......

है दर्द के गाँवों से दूर, झुकी पलकों के वो शहर....

बेचैन सी कर जाती है जब तन्हा ये सफर,
जग उठते हैं दिल में जज्बातों के भँवर,
एकाकी मन तब सोंचता है तन्हाईयों में सिमटकर,
काश वो पलकें बन जाती मेरी हमसफर ........

छाँव उन्हीं पलकों के, दिल ढूंढता है रह रहकर....