Sunday 29 January 2017

पत्थर दिल

न जाने कब पत्थर हुआ, मासूम सा ये दिल मेरा.....

हैरान हूँ मैं, न जाने कहां खोई है मेरी संवेदना?
आहत ये दिल जग की वेदनाओं से अब क्यूँ न होता?
देखकर व्यथा किसी कि अब ये बेजार क्यूँ न रोता?
व्यथित खुद भी कभी अपने दुखों से अब न होता!
बन चुका है ये दिल, अब पत्थर का शायद!
न तो रोता ही है ये अब, न ही ये है अब धड़कता!

न जाने कब पत्थर हुआ, मासूम सा ये दिल मेरा.....

हैरान हूँ मै, न जाने कहां खोई दिल की मासूमियत?
महसूस क्यूँ न अब ये उमरते से संवेदनाओं को करता?
मासूम सी अपनी हँसी क्यूँ लबों पे अब न बिखेरता?
दर्द के पल समेटकर क्यूँ चुपचाप खुद ही घुटता?
अपनाकर किसी ने, तोड़ा है ये दिल शायद!
न ही मुस्कुराता है ये अब, न ही अब ये संभलता!

न जाने कब पत्थर हुआ, मासूम सा ये दिल मेरा.....

Thursday 26 January 2017

उठो देश

उठो देश! यह दिवस है स्वराज का, गण के तंत्र का,
पर क्युँ लगता? यह गणराज्य हमारी है बिखरी सी,
जंजीरों में जकरा है मन, स्वाधीनता है खोई सी,
पावन्दियों के हैं पहरे, मन की अभिलाषा है सोई सी,
अंकुश लगे विचारों पे, कल्पनाशीलता है बंधी सी,
फिर क्युँ न तोड़कर बंधन, रच ले अपना गणतंत्र हम?

आओ सोचे मिलकर, स्वाधीन बनाएँ मन अपना हम,
खींच दी थी किसी ने, लकीरें पाबन्दियों की इस मन पर
अवरुद्ध था मन का उन्मुक्त आकाश सरजमीं पर,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता कहीं न कहीं पर,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ से हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
देखी हैं फिर मैने विवशताएँ आर-पार सरहदों के,
न जाने क्यूँ उठने लगा है अंजाना दर्द सीने में..

उठो देश, जनवरी 26 फिर लिख लें अपने मन पर हम..

Wednesday 25 January 2017

यादों की बस्ती

है ख्वाबों की वो, बनती बिगरती इक छोटी सी बस्ती,
कुछ बिछड़ी सी यादें उनकी,अब वहीं हैं रहती......

है अकेली नहीं वो यादें, संग है उनके वहीं मेरा मन भी,
रह लेता है कोने में पड़ा, वहीं कहीं मेरा मन भी,
भूली सी वो यादें, घंटो तलक संग बातें हैं मुझसे करती,
बस जाती है वो बस्ती, बहलता हूँ कुछ देर मैं भी।

यूँ हीं कभी हँसती, तो पल भर को कभी वो सँवरती,
यूँ टूट-टूटकर कर कभी, बस्ती में वो बिखरती.....

हर तरफ बिखरी है उनकी यादें, बिखरा है मेरा मन भी,
संभाले हुए वो ही यादें, बैठा वहीं है मेरा मन भी,
टूटी हुई वो यादें, सुबक-सुबक कर बातें मुझसे करती,
फिर ख्वाब नए लेकर, सँवरती है वो ही बस्ती।

आँखों से छलकती, कभी कलकल नदियों सी बहती,
यूँ ही कभी विलखती, बहती वो यादों की बस्ती...

चाहत के सिलसिले

ये जादू है कोई! या जुड़ रहे हैं कोई सिलसिले?....

बेखुदी में खुद को कहीं, अब खोने सा लगा हूँ मैं,
खुद से हीं जुदा कहीं रहने लगा हूँ मैं,
कुछ अपने आप से ही अलग होने लगा हूँ मैं,
काश! धड़कता न ये मन, खोती न कही दिल की ये राहे,
काश! देखकर मुझको झुकती न वो पलकें.....

ये कैसा है असर! क्या है ये चाहत के सिलसिले?...

अंजान राहों पे कहीं, भटकने सा लगा हूँ मैं,
भीड़ में तन्हा सा रहने लगा हूँ मैं,
या ले गया मन कोई, अंजान अब तक हूँ मैं,
काश! पिघलता न ये मन, डब-डबाती न मेरी ये आँखें,
काश! अपनापन लिए कुछ कहती न वो पलकें.....

ये रिश्ता है कोई? या है ये जन्मों के सिलसिले?.....

वक्त ठहरा है वहीं, बस बीतने सा लगा हूँ मैं,
जन्मों के तार यूँ ही ढूंढने लगा हूँ मैं,
या डूबकर उन आँखों में ही, उबरने लगा हूँ मैं,
काश ! तड़पता न ये मन, अनसुनी होती न मेरी ये आहें,
काश! सपनो के शहर लिए चलती न वो पलकें.....

ये कैसी है चाहत? या हसरतो के हैं ये सिलसिले?...

Thursday 19 January 2017

टहनी

अनुराग के मंजर टहनी पर,
खिल आई थी फिर खुश्बू लेकर,
मिला हो जैसे उस टहनी को,
किसी कठिन तपस्या का प्रतिफल।

घनीभूत हुई थी रूखे तन पर,
उमरते आशाओं के बादल,
फूट पड़े थे जैसे इच्छाओं के स्वर,
अन्त: तक भीगा मन का मरुस्थल।

झूम उठी वो टहनी मंजराकर,
महक उठी थी फिजाएँ,
उसकी भीनी सी खुश्बू लेकर,
स्वागत मे उसने फैलाए थे आँचल।

रूप श्रृंगार यौवन का लेकर,
हरित हुई थी वो टहनी,
सृष्टि मुस्काई मुखरित होकर,
मंजर मंजर खिल आए थे मधुफल।

क्षण आकर्षण के बिखेरकर,
मुरझाई अब वो टहनी,
अगाध अनुराग के खुश्बू देकर,
प्रतिफल मे पाया था सूना सा आँचल।

Tuesday 17 January 2017

पलने दो ख्वाब

चुप से हैं कुछ ख्वाब, कुछ इनको कह जाने दो....

गहरी सी दो आँखों में, ख्वाबों को पलने दो,
कुछ रंग सुनहरे मुझको, ख्वाबों मे भर लेने दो,
तन्हाई संग मुझको, इन पलकों में रह लेने दो,
बुत बना बैठा हूँ, ख्वाब जरा बुन लेने दो....

गहरी सी हैं दो आँखें, डूब न जाए ख्वाब मेरे,
इन चंचल से दो नैनों में, टूट न जाए ख्वाब मेरे,
पलकें यूँ न मूंदो, कहीं सो जाए न ख्वाब मेरे,
ख्वाब नए हरपल, जरा साँसों में पिरोने दो.....

सतरंगी से कुछ ख्वाब, इन्द्रधनुष बन छाने दो,
कहीं टूटे ना ये ख्वाब, इन्हें हकीकत बन जाने दो,
नन्हे-नन्हे से ख्वाब, इन्हे खिल कर मुस्काने दो,
फिर देखें हम ख्वाब, आँखों को सहलाने दो....

गुमसुम से हैं कुछ ख्वाब, कुछ इनको कह जाने दो....

Saturday 14 January 2017

मकर संक्रांति

नवभाव, नव-चेतन ले आई, ये संक्रांति की वेला........

तिल-तिल प्रखर हो रही अब किरण,
उत्तरायण हुआ सूर्य निखरने लगा है आंगन,
न होंगे विस्तृत अब निराशा के दामन,
मिटेंगे अंधेरे, तिल-तिल घटेंगे क्लेश के पल,
हर्ष, उल्लास,नवोन्मेष उपजेंगे हर मन।

धनात्मकता सृजन हो रहा उपवन में,
मनोहारी दृश्य उभर आए हैं उजार से वन में,
खिली है कली, निराशा की टूटी है डाली,
तिल-तिल आशा का क्षितिज ले रहा विस्तार,
फैली है उम्मीद की किरण हर मन में।

नवप्रकाश ले आई, ये संक्रांति की वेला,
अंधियारे से फिर क्युँ,डर रहा मेरा मन अकेला,
ऐ मन तू भी चल, मकर रेखा के उस पार,
अंधेरों से निकल, प्रकाश के कण मन में उतार,
मशाल हाथों में ले, कर दे  उजियाला।