Wednesday 19 July 2017

कभी

कभी गुजरना तुम भी मन के उस कोने से,
विलखता है ये पल-पल, तेरे हो के भी ना होने से...

कुछ बीत चुके दिन सा है...
तेरा मौजूदगी का अनथक एहसास!
हकीकत ही हो तुम इक,
मन को लेकिन ये कैसे हो विश्वास?
कभी चुपके से आकर मन के उस कोने से कह दो,
इनकी पलकों से ये आँसू यूँ ही ना बहने दो।

माना कि बीत चुका कल ....
फिर वापस लौट सका है ना मुड़कर,
पर मन का ये गुमसुम सा कोना,
अबतक बैठा है बस उस कल का होकर,
कहता है ये, वो गुजरा वक्त नहीं जो फिर ना आएंगे,
वापस मेरी गलियों में ही वो लौट कर आएंगे।

कल के उस पल में था जीवन...
नृत्य जहाँ करते थे जीवन के हर क्षण,
गूँज रही है अब तक वो तान,
रह रह कर गीत वही दोहराता है वो कोना,
सांझ ढले, दोबारा धुन वही सुनने को तुम आ जाना,
कोई बहका सा सुर बहकी साँसों में भर जाना।

यूँ गुजरना तुम कभी मन के उस कोने से,
विलखता है ये पल-पल, तेरे हो के भी ना होने से...

Wednesday 12 July 2017

श्रापमुक्त

कुछ बूँदे! ... जाने क्या जादू कर गई थी?
लहलहा उठी थी खुशी से फिर वो सूखी सी डाली....

झेल रहा था वो तन श्रापित सा जीवन,
अंग-अंग टूट कर बिखरे थे सूखी टहनी में ढलकर,
तन से अपनों का भी छूटा था ऐतबार,
हर तरफ थी टूटी सी डाली और सूखे पत्तों का अंबार..

कांतिहीन आँखों में यौवन थी मुरझाई,
एकांत सा खड़ा अकेला दूर तक थी इक तन्हाई,
मुँह फेरकर दूर जा चुकी थी हरियाली,
अब दामन में थे बस सूखी कलियों का टूटता ऐतबार...

कुछ बूँदे कहीं से ओस बन कर आई,
सूखी सी वो डाली हल्की बूँदों में भीगकर नहाई,
बुझ रही थी सदियों की प्यास हौले होले,
मन में जाग उठा फिर हरित सपनों का अनूठा संसार...

हुई प्रस्फुटित नवकोपल भीगे तन पर,
आशा की रंगीन कलियाँ गोद भरने को फिर आई,
हरीतिमा इठलाती सी झूम उठी तन पर,
ओस की कुछ बूँदें, स्नेह का कुछ ऐसा कर गई श्रृंगार..

उम्मीदों की अब ऊँची थी फरमाईश,
बारिश की बूँदों में भीग जाने की थी अब ख्वाहिश,
श्रापित जीवन से मुक्त हुआ वो अन्तर्मन,
कुछ बूँदे! ..जाने क्या जादू कर गई थी सूखी डाली पर..

Sunday 9 July 2017

मन का इक कोना

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

यूँ तो अब तन्हा बीत चुकी हैं सदियाँ,
बहाने जी लेने के सौ, ढूँढ लिया है इस मन ने,
फिर भी, क्युँ नही भरता मन का वो कोना?
क्युँ चाहे वो बस तेरी ही यादों में खोना?

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

मिले जीवन के पथ कितने ही सहारे,
मन के उस जिद्दी से कोने से बस हम हैं हारे,
खाली खाली सा रहता हरदम वो कोना!
वो सूना सा कोना चाहे तेरा ही होना!

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

खिलते रहें हैं फूल मन के हर कोने में,
इक पतझड़ सा क्यूँ छाया, मन के उस कोने में,
रिमझिम बारिश क्यूँ बरसे ना उस कोना?
कोई फूल खिले ना क्यूँ उस कोना?

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

अधिकार तुम्हारा शायद उस कोने पर,
इक अविजित साम्राज्य है तुम्हारा उस कोने पर,
जीत सका तुझसे ना वापस कोई वो कोना!
मेरे अन्दर ही पराया मुझसे वो कोना!

मन का इक कोना, तुम बिन है आज भी सूना.....

हरी चूड़ियाँ

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

हरी सी वो चूड़ियाँ, गाते हैं गीत सावन के,
छन-छन करती वो चूड़ियाँ, कहते हैं कुछ हँस-हँस के,
नादानी है ये उनकी या है वो गीत शरारत के?

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

छनकती है चूड़ियाँ, कलाई में उस गोरी के,
हँसती हैं कितनी चूड़ियाँ, साजन के मन बस-बस के,
चितवन चंचल है कितनी हरी सी उस चूड़ी के!

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

भीग चुकी हैं ये चूड़ियाँ, बदली में सावन के,
मदहोश हुई ये चूड़ियाँ, प्रेम मद सावन संग पी-पी के,
अब गीतों में आई रवानी, हरी सी उस चूड़ी के!

चहकी हाथों में हरीतिमा, ललचाए मन साजन के...

Friday 7 July 2017

छलकते बूँद

छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....

ऋतु सावन की लेकर आई ये घटाएँ,
बारिश की छलकी सी बूँदों से मन भरमाए,
मंद-मंद चंचल सा वो बदरा मुस्काए!

तन बूंदो से सराबोर, मन हो रहा विभोर,
छलके है मद बादल से, मन जाए किस ओर,
छुन-छुन छंदों संग, हिय ले रहा हिलोर!

थिरक रहे ठहरे से पग, नाच उठा है मोर,
झूम उठी है मतवाली, झूम रहा वो चितचोर,
जित देखूँ तित, बूँदे हँसती है हर ओर!

कल-कल करती बह चली सब धाराएँ,
छंद-छंद गीतों से गुंजित हो चली सब दिशाएँ,
पुकारती है ये वसुन्धरा बाहें सब फैलाए!

ऋतु ये आशा की, फिर आए न आए!
उम्मीदों के बादल, नभ पर फिर छाए न छाए!
चलो क्युँ ना इन बूँदों में हम भीग जाएँ!

छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....

Tuesday 4 July 2017

रिमझिम सावन

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,
भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,
कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से....

भीगी सी ये हरीतिमा, टपके  हैं  बूदें पत्तों से,
घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं काजल कुछ नैनों से,
बेरंग सी ये कलाई, मुझ बिन रंगे ना कोई मेहदी से....

भीगे से हैं ये ख्वाब, या बहते हैं सपने नैनों से,
हैं ख्वाब कई रंगों के, छलक रहे रिमझिम बादल से,
वो है जरा बेचैन, ना देखे मुझ बिन ख्वाब नैनों से....

भीगी सी है ये रुत, लिपटा है ये आँचल तन से,
कैसी है ये पुरवाई, डरता है मन भीगे से इस घन से,
चुप सा भीग रहा वो, मुझ बिन ना खेले सावन से......

बूँद-बूँद बिखरा ये सावन, कहता है कुछ मुझसे,
सपने जो सारे सूखे से है, भीगो ले तू इनको बूँदो से,
सावन के भीगे से किस्से, जा तू कह दे सजनी से....

आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...

Saturday 1 July 2017

विरह के पल

सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं.....

आया था जीवन में वो जुगनू सी मुस्कान लिए,
निहारती थी मैं उनको, नैनों में श्रृंगार लिए, 
खोई हैं पलको से नींदें, अब असह्य सा इन्तजार लिए,
कलाई की चूरी भी मेरी, अब करती शोर नहीं,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

इक खेवनहार वही, मेरी इस टूटी सी नैया का,
तारणहार वही मेरी छोटी सी नैय्या का,
मझधार फसी अब नैय्या, धक-धक से धड़के है जिए,
खेवैय्या अब कोई मेरा नदी के उस ओर नही,
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

अधूरे सपनों संग मेरी, बंधी है जीवन की डोर,
अधूरे रंगों से है रंगी, मेरी आँचल की कोर,
कहानी ये अधुरी सी, क्युँ पूरा न कर पाया मेरा प्रिय,
बिखरे से मेरे जीवन का अब कोई ठौर नहीं!
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

सच जानकर भी, ये मन क्युँ जाता है उस ओर?
भरम के धागों से क्युँ बुनता मन की डोर?
पतंगा जल-जलकर क्युँ देता है अपनी प्राण प्रिय?
और कोई सुर मन को क्युँ करता विभोर नहीं?
सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....

खेवैय्या कोई अपना सा, अब नदी के उस ओर नही!