Wednesday 23 August 2017

कलपता सागर

हैं सब, बस उफनती सी उन लहरों के दीवाने,
पर, कलपते सागर के हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

पल-पल विलखती है वो ...
सर पटक-पटक कर तट पर,
शायद कहती है वो....
अपने मन की पीड़ा बार-बार रो रो कर,
लहर नहीं है ये....
है ये अनवरत बहते आँसू के सैलाब,
विवश सा है ये है फिर किन अनुबंधों में बंधकर....

कोई पीड़ दबी है शायद इसकी मन के अन्दर,
शांत गंभीर सा ये दिखता है फिर क्युँ, मन उसका ही जाने?

बोझ हो चुके संबंधों के अनुबंध है ये शायद!
धोए कितने ही कलेश इसने,
सारा का सारा.......
खुद को कर चुका ये खारा,
लेकिन, मानव के कलुषित मन...
धो-धो कर ये हारा!
हैं कण विषाद के, अब भी मानव मन के अन्दर,
रो रो कर यही, बार-बार कहती है शायद ये लहर.....

ठेस इसे हमने भी पहुँचाया है जाने अनजाने!
कंपित सागर के कलपते हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

Friday 18 August 2017

अधर

सुंदर हैं वो अधर, मेरे शब्दों में जो भरते हैं स्वर...

ओ संगनिष्ठा, मेरे कोरे स्वर तू होठों पे बिठा,
जब ये तेरे रंगरंजित अधरों का आलिंगन ले पाएंगे,
अंबर के अतिरंजित रंग इन शब्दों मे भर जाएँगे!

शब्दों के मेरे रंगरंजित स्वर, रंग देंगे ये तेरे अधर...

ओ बासंती, कोकिल कंठ तू शब्दों को दे जा,
प्रखर से ये तेरे स्वर लेकर ही, ये मुखरित हो पाएंगे,
सुर के ये सप्तम स्वर मेरे शब्दों में भर जाएँगै।

अधरों की सुरीली चहचहाहट में डूबे हैं मेरे स्वर....

ओ अधरश्रेष्ठा, कंपन होठों की इनको दे जा,
चंचल से दो अधरों के कंपन की जब उष्मा ये पाएंगे,
अर्थ मेरे इन शब्दों के कहीं व्यर्थ नहीं जाएँगे।

अधरों की कंपित वीणा मे होंगे ये मेरे स्वर प्रखर...

Wednesday 16 August 2017

भावस्निग्ध

कंपकपाया सा क्युँ है ये, भावस्निध सा मेरा मन?

मन की ये उर्वर जमीं, थोड़ी रिक्त है कहीं न कहीं!
सीचता हूँ मैं इसे, आँखों में भरकर नमीं,
फिर चुभोता हूँ इनमें मैं, बीज भावों के कई,
कि कभी तो लहलहाएगी, रिक्त सी मन की ये जमीं!

पलकों में यूँ नीर भरकर, सोचते है मेरे ये नयन?

रिक्त क्युँ है ये जमीं, जब सिक्त है ये कहीं न कहीं?
भिगोते हैं जब इसे, भावों की भीगी नमी,
इस हृदय के ताल में, भँवर लिए आते हैं ये कई,
गीत स्नेह के अब गाएगी,  रिक्त सी मन की ये जमीं!

भावों से यूँ स्निग्ध होकर, कलप रहा है क्युँ ये मन?

Tuesday 15 August 2017

अव्यक्त कहानी

रह गई अब अव्यक्त जो, वही इक कहानी हूँ मैं!

आरम्भ नही था जिसका कोई,
अन्त जिसकी कोई लिखी गई नहीं,
कल्पना के कंठ में ही रुँधी रही,
जिसे मैं  परित्यक्त भी कह सकता नहीं।

चुभ रही है मन में जो, वही इक पीर पुरानी हूँ मैं!

व्यक्त इसे कही करता कोई,
काश! मिल जाता इसे प्रारब्ध कोई,
बींध लेता कोई मन के काँटे कहीं,
असह्य सी ये पीर पुरानी कभी होती नही।

वक्त में धुमिल हुई जो, वही भूली निशानी हूँ मैं!

साहिल पे लिखी गजल कोई,
या रेत में ढली खूबसूरत महल कोई,
बहाकर मौजें लहर की ले चली,
भूली सी वो दास्तां जो अब यादों में नहीं।

व्यक्त फिर से ना हुई जो, वही इक कहानी हूँ मैं!

Saturday 12 August 2017

15 अगस्त

 ये है 15 अगस्त, स्वतंत्र हो झूमे ये राष्ट्र समस्त!

ये है उत्सव, शांति की क्रांति का,
है ये विजयोत्सव, विजय की जय-जयकार का,
है ये राष्ट्रोत्सव, राष्ट्र की उद्धार का,
यह 15 अगस्त है राष्ट्रपर्व का।

याद आते है हमें गांधी के विचार,
दुश्मनों को भगत, आजाद, सुभाष की ललकार,
तुच्छ लघुप्रदेश को पटेल की फटकार,
यह 15 अगस्त है राष्ट्रकर्म का।

विरुद्ध उग्रवाद के है यह इक विगुल,
विरुद्ध उपनिवेशवाद के है इक प्रचंड शंखनाद ये,
देश के दुश्मनों के विरुद्ध है हुंकार ये,
यह 15 अगस्त है राष्ट्रगर्व का।

ये उद्घोष है, बंधनो को तोड़ने का,
है यह उद्बोध, देशभक्ति से राष्ट्र को जोड़ने का,
है यह एक बोध, स्वतंत्रता सहेजने का,
यह 15 अगस्त है राष्ट्रधर्म का।

 ये है 15 अगस्त, स्वतंत्र हो झूमे ये राष्ट्र समस्त!

Friday 11 August 2017

मेरी जन्मभूमि

है ये स्वाभिमान की, जगमगाती सी मेरी जन्मभूमि...

स्वतंत्र है अब ये आत्मा, आजाद है मेरा वतन,
ना ही कोई जोर है, न बेवशी का कहीं पे चलन,
मन में इक आश है,आँखों में बस पलते सपन,
भले टाट के हों पैबंद, झूमता है आज मेरा मन।

सींचता हूँ मैं जतन से, स्वाभिमान की ये जन्मभूमि...

हमने जो बोए फसल, खिल आएंगे वो एक दिन,
कर्म की तप्त साध से, लहलहाएंगे वो एक दिन,
न भूख की हमें फिक्र होगी, न ज्ञान की ही कमी,
विश्व के हम शीष होंगे, अग्रणी होगी ये सरजमीं।

प्रखर लौ की प्रकाश से, जगमगाएगी मेरी जन्मभूमि...

विलक्षण ज्ञान की प्रभा, लेकर उगेगी हर प्रभात,
विश्व के इस मंच पर,अपने देश की होगी विसात,
चलेगा विकाश का ये रथ, या हो दिन या हो रात,
वतन की हर जुबाॅ पर, होगी स्वाभिमान की बात।

स्वतंत्र इस विचार से, गुनगुनाएगी ये मेरी जन्मभूमि...

है कहाँ?

है कहाँ अब वो दिन, है कहाँ अब वो बेकरारियाँ?

चैन के वो दिन, अब हो चुके है ग्रास काल के,
वक्त के ये अंधेरे निगल चुके हैं जिसे,
ढूंढते है बस हम उन्हें, थामे चराग हाथ में।

है कहाँ अब वो पल, है कहाँ अब वो तन्हाईयाँ?

गुजर चुके वो सारे पल, जो कभी थे बस मेरे,
सर्द खामोशियों के है बस हर तरफ,
भटक रहे हैं हम, चैनों शुकून की तलाश में।

हैं कहाँ अब वो लोग, है कहाँ अब वो कहानियाँ?

गुम न जाने वे हुए कहाँ, जो थे करीब दिल के,
हैं फलक पर वो बनकर सितारों से टँके,
चुप सी है वो बोलती कहानी, खामोश सी ये रातें।

है कहाँ अब वो दबिश, है दिल के चैन अब कहाँ?

Wednesday 9 August 2017

अनुरोध

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

कूउउ-कूउउ करती तेरी मिश्री सी बोली,
हवाओं में कंपण भरती जैसे स्वर की टोली,
प्रकृति में प्रेमर॔ग घोलती जैसे ये रंगोली,
मन में हूक उठाती कूउउ-कूउउ की ये आरोहित बोली!

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

सीखा है पंछी ने कलरव करना तुमसे ही,
पनघट पे गाती रमणी के बोलों में स्वर तेरी ही,
कू कू की ये बोली प्रथम रश्मि है गाती,
स्वर लहरी में डुबोती कूउउ-कूउउ की ये विस्मित बोली!

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

निष्प्राणों मे जीवन भरती है तेरी ये तान,
बोझिल दुष्कर क्षण हर लेती है ये तेरी मीठी गान,
क्षण भर में जी उठते हैं मृत से प्राण,
सपने नए दिखाती कूउउ-कूउउ की ये अचम्भित बोली!

मधुर-मधुर इस स्वर में सदा गाते रहना ऐ कोयल....

Tuesday 8 August 2017

शोर मचाती आँखें

शोर बहुत करती है तेरी चुप सी ये दो आँखें!

जाने ये क्या बक-बक करती है तेरी ये दो आँखें!
भींचकर शब्दों को भिगोती है ये पहले,
दर्द की सुई फिर डूबकर पिरोती है इनमें,
फिर छिड़ककर नमक हँसती है तेरी ये दो आँखें.....

खामोशियों में कहकहे लगाती है तेरी ये दो आँखें!
कभी चुपचाप युँ ही मचाती है शोर ये,
जलजला सा लेकर ये आती कभी हृदय में,
कभी मुक्त धार लिए बहती है चुपचाप ये दो आँखें....

दरिया नहीं, इक बाँध में बंधी झील है ये दो आँखें!
करुण नाद लिए कभी करती है शोर ये,
अनगढ़े शब्दों में फिर उड़ेलती है कोई बातें,
शंखनाद करती हुई लहर सी कभी बहती है ये आँखें....

मासूम कभी कितनी बन जाती है तेरी ये दो आँखें!
उड़ा ले जाती है होश ये नयन चंचल से,
गति पुतलियों की हरती है मति मनप्रांजल से,
दर्द फिर सीने में उठाती है खामोश सी ये दो आँखें!

शोर बहुत करती है तेरी चुप सी ये दो आँखें!

Thursday 3 August 2017

विदाई

विदाई की वेदना में असह्य से गुजरते हुए ये क्षण!

भर आई हैं आखें, चरमराया सा है ये मन,
भरी सी भीड़ में, तन्हा हो रहा ये बदन,
तपिश ये कैसी, ले आई है वेदना की ये अगन!

निर्झर से बह चले हैं, इन आँखों के कतरे,
बोझिल सा है मन, हम हुए खुद से परे,
मिलन के वे सैकड़ों पल, विदाई में संग रो रहे!

हर ईक झण ये विदाई की दे रही है पीड़ा,
रो रहा टूट कर मन का हरेक टुकड़ा,
छलकी हैं इतनी आँखें, ज्यूँ आसमाँ है रो पड़ा!

विदाई के इन पलों से संबंध कई नए जनेंगे,
मृदु से लोग होंगे, पर कहीं हम न होंगे,
पर तन्हाईयों में याद कर, गले हम तुमसे मिलेंगे!

विदाई के इस क्षण, क्यूँ चरमराया सा है ये मन?